ग़ज़ल
मेरी ग़ज़ल
तुम्हारा हँसी गाल हो गई
उस की रदीफ़ जैसे सियह ख़ाल हो गई
फिर उन की क़ामयाब
कोई चाल हो गई
सरहद की जंग जिन के
लिए ढाल हो गई
सरकार जब भी देश की पामाल हो गई
सरहद पे जंग छेड़ के ख़ुशहाल हो गई
पौ बारह लोकतन्त्र में नेताओं के हुये
बेचारी जनता कैसी फटे हाल
हो गई
क़ुदरत ने तो बनाई ज़मीं एक थान में
बँट-बँट के सरहदों में ये रुमाल हो गई
कैसे करुँगा अब के भी बिटिया तुझे विदाअ
“मिल” में तो अब की साल भी
हड़ताल हो गई
इक वक़्त था कि दाल में काले से ख़ोफ था
सारी ही काली अब तो मगर दाल हो गई
मिलता शरफ़ जो वस्ल का क्या होता जाने हाल
उस ने नज़र से ही छुआ, मैं लाल हो गई
इक बेवफ़ा पे माले-मुहब्बत लुटा दिया
मैं मालदार हो के भी कंगाल हो गई
‘कमसिन’ से अच्छा कौन है सारे
जहान में
सब दोस्तों के जी का वो जंजाल हो गई
कठिन शब्द = ख़ाल = तिल, पामाल = पद-दलित,
शरफ़ = सौभाग्य, माले-मुहब्बत
= प्रेम रुपी पूँजी
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