हम कैसे आस्तिक है
भारत धर्म
प्राण जनता है। धर्म व आस्था के नाम पर बहुत कुछ आडंबर व दिखावा भी होता है और
धर्म के नाम पर अंधा-नुकरण होता है। जब कि परमपराओं के अंधा-नुसरण में विवेक से
काम लेना चाहिए।
नवरात्री उत्सव
हो या अन्य, पूजा के बाद मिट्टी व केमिकल रंगों से सज्जित मूर्तियों को नदी, कुओं,
तालाबों सागरों में प्रवाहित कर दिया जाता है, कई जगह इनकी दुर्गति मन को वितृष्णा
से भर देती है। जिन भगवान को नदी-समुद्रों में विसर्जित किया जाता है, उन्हें
बुलडोजरों से इधर-उधर निकाला जाता है। इनकी दुर्गति होती है। साथ ही जल के जीवों
पर मूर्तियों पर लगाए गए रंगों, रासायनिकों का दुष्प्रभाव भी पड़ता है। कितने ही
जीव जन्तु इस कारण मर तक जाते होंगे। जल प्रदुषण कितना बढ़ता है, ज़रा सोचिए। इसी
प्रकार पूजा के बाद भी उतारी सामग्री को भी जल में डाला जाता है। ताकि अपवित्र जगह
पर नहीं पड़े। लेकिन ऐसा करके हम जल को प्रदूषित कर रहे हैं। ईश्वर की प्रकृति के
प्रति घोर अन्याय कर रहे है। जल भी तो ईश्वर का ही वरदान है, प्राणी प्रकृति का
आधार है। इन्सान को कोई अधिकार नहीं कि ईश्वर की रचना को तहस-नहस करें। इसी का
परिणाम आज मानव भोग रहा है। इन सभी बातों का दूसरा विकल्प भी तो होता है। पानी को
प्रदूषित करके, जल-जीवों को मारकर मानव पुण्य नहीं अपितु पाप ही कर रहा है।
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