निरोगधाम के संपादक जी को मेरा पत्र
सेवा में,
श्री संपादक जी,
निरोग धाम, इंदोर।
निरोग धाम, इंदोर।
सादर प्रणाम।
सबसे पहले तो मैं आपको हार्दिक शुभकामनायें देता हूँ कि आपने निरोग धाम में जो अलसी की फसल बोई है, इसकी सुगंध पूरे भारतवर्ष में फैल रही है, हर ओर इसके नीले नीले फूलों की छटा छाई हुई है और हर तरफ अलसी चालीसा का नाद सुनाई दे रहा है। जिधर देखो उधर लोग अलसी से स्वास्थ्य लाभ उठा रहे हैं। ऐसी जानकारियों के ढेरों फोन मुझे मिल रहे है। लोगों की अच्छी अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है। इसके लिये मैं आपको कोटि-कोटि धन्यवाद देता हूँ।
सब जानते हैं कि आजकल कैंसर उपचार के लिए दी जाने कीमोथैरेपी अत्यंत मंहगी है, शल्य चिकित्सा एवं विकिरण चिकित्सा के लिए भी चिकित्सालय भारी कीमत वसूलते हैं। फिर भी कुछ ही रोगियों को लाभ मिलता है। ज्यादातर रोगियों को निराशा ही मिलती है, हां पर उन्हें कीमोथेरेपी के दुष्प्रभावों की पीड़ा को तो भुगतना ही पड़ता है। कभी कभी तो इन दुष्प्रभावों के कारण उनकी मृत्यु तक हो जाती हैं। गाँवों के गरीब लोग जमीन बेचकर, कर्जा लेकर अपने परिजनों के कैंसर का उपचार कराने शहर आते हैं और लाखों रूपये खर्च करने के बदले उन्हें अपने परिजनों की मौत के सिवा कुछ नहीं मिलता है। पर सरकार, नेता और उच्च अधिकारी खामोशी से यह मौत का तांडव देखते रहते हैं (लगता है थोड़े से पैसों के लालच के लिए ये देश और समाज के प्रति अपना कर्तव्य भूल जाते हैं ) और रेडियोथेरेपी उपकरण और कीमोथेरेपी की दवाइयां बनाने वाले अंतर्राष्ट्रीय संस्थान भारी लाभ अर्जित करते हैं और खून पसीने से अर्जित हमारी विदेशी मुद्रा ले उड़ते हैं।
सरकार को यह चाहिये कि इन बीमारियों के बचाव के लिए नये सरकारी कार्यक्रम तैयार करे, भ्रष्ट बहुराष्ट्रीय संस्थाओं पर लगाम कसे और मैदा, वनस्पति (डालडा), आंशिक हाइड्रोजिनेटेड रिफाइंड तेल, ट्रांसफेट, विभिन्न कृत्रिम रंगों, प्रिजर्वेटिव्ज व रसायनों को प्रतिबंधित करे। लोगों को शिक्षित करें। जागो लालची और अपराधी नेताओं आपका काम भ्रष्टाचार से अर्जित किये पैसों को स्विस बैंक में जमा करने, अपने लिए बंगले, फार्महाउस, मंहगी कारें आदि खरीदना ही नहीं बल्कि देश सेवा भी है।
अमेरिका की नेशनल कैंसर इंस्टिट्यूट और एफ.डी.ए. के अधिकारी इन बहुराष्ट्रीय संस्थानों से मोटी रिश्वत लेकर इनके इशारों पर नाचतें हैं, कैंसर पर हो चुकी शोध को कैंसर उपचार में प्रयोग नहीं करते हैं, कैंसर के प्राकृतिक और वैकल्पिक उपचार जैसे डा. बुडविज प्रोटोकोल (जो क्रूर, कुटिल, कपटी, कठिन और कष्टप्रद कर्करोग का सस्ता, सरल, सुलभ, सुरक्षित और संपूर्ण समाधान है लेकिन प्राकृतिक होने के कारण इसे पेटेन्ट नहीं करवाया जा सकता और करोड़ों डालर का मुनाफा नहीं कमाया जा सकता) को प्रतिबन्धित और बदनाम करते हैं, कैंसर के वास्तविक कारणों व उपचार खोजनें की दिशा में कोई शोध कार्य नहीं करते हैं, पर इन संस्थानों द्वारा बनाये गयी घातक और जानलेवा दवाईयों को मुहं मांगे दामों पर बेचने के लिये स्वीकृत करते हैं, प्रेरित करते हैं और प्रलोभन देते हैं। अब तो लोग भी कहने लगे हैं कि जो एफ.डी.ए. करे वो डॉक्टरी और जो वैकल्पिक या आयुर्वेद चिकित्सक करे वो “क्वेकरी”।
भारत सरकार को अपने स्तर पर अपने चिकित्सकों और वैज्ञानिकों से कैंसर के कारणों और कीमोथैरेपी की दवाओं पर शोध करवाना चाहिये और यह सिद्ध होने पर कि अमुक दवा सचमुच कैंसर के रोगी को लाभ पहुंचायेगी व इसका शरीर पर कोई दुष्प्रभाव भी नहीं होगा, तभी उसे कैंसर के उपचार में प्रयोग करने के लिए अनुमति मिलना चाहिये। सरकार को चाहिये कि भ्रष्ट अमरीकी संस्थाओं और धन लोलुप बहुराष्ट्रीय संस्थानों की गतिविधियों पर पैनी नजर रखने के लिए नई संस्थाएं गठित करे।
आधुनिक युग की महामारियां जैसे मधुमेह, उच्च रक्तचाप, कैंसर, आर्थ्राइटिस आदि, जिनसे हर चौथा या पांचवा भारतीय ग्रसित है, जिनका मुख्य कारण हमारे भोजन में ओमेगा-3 फेटी एसिड की कमी, भ्रष्ट बहुराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा मैदा, वनस्पति (डालडा), आंशिक हाइड्रोजिनेटेड रिफाइंड तेल, ट्रांसफेट, विभिन्न कृत्रिम रंगों, प्रिजर्वेटिव्ज व रसायनों से निर्मित परिवर्तित खाद्य पदार्थ हैं, जिन्हें वे लुभावने विज्ञापन दिखा दिखा कर वे हमें खिला रहे हैं।
डॉ. वारबर्ग ने कैंसर का मूल कारण सन् 1923 में ही खोज लिया था। इसके लिए उन्हें दो बार नोबेल पुरस्कार भी दिया गया। 30 जून 1966 को लिंडाव, जर्मनी में हुए नोबेल पुरस्कार समारोह में भी उन्होंने दुनिया भर के वैज्ञानिकों के सामने व्याख्यान दिया था और चीख-चीख कर अपनी खोज के बारे में बताया था। करोड़ों लोग हर वर्ष इस जानलेवा रोग से मर रहे हैं पर कैंसर व्यवसाइयों ने न तो इससे बचाव के लिए और न ही इसके उपचार के लिए डॉ. वारबर्ग और डॉ. योहाना बुडविज की शोध का कोई लाभ रोगियों को दिया है। यह इंसानी लालच की पराकाष्ठा है। यह अमरीकी संस्थान एफ.डी.ए. और नेशनल कैंसर इंस्टिट्यूट का असली चेहरा है जिसके सीधे या परोक्ष हस्तक्षेप से पूरे विश्व के ऎलोपेथी संस्थान कार्य करते हैं।
जर्मनी की विख्यात कैंसर विशेषज्ञ डॉ। योहाना बुडविज ने 1950 में अलसी के तेल, पनीर और कैंसररोधी फलों व सब्जियों के साथ कैंसर के उपचार का तरीका विकसित किया था, जिसके लिये वे सात बार नोबेल पुरस्कार के लिए चयनित भी हुई। लेकिन उन्होंने यह पुरस्कार ठुकरा दिया क्योंकि उनके सामने शर्त रखी गई थी कि वे रेडियोथेरेपी और कीमोथेरेपी को भी अपने उपचार में शामिल करें, वे जिसके के सख्त विरूद्ध थी।
वे 1950 से 2002 तक वे इस उपचार से लाखों कैंसर के रोगियों का उपचार करती रही, जिसमें उन्हें 90 प्रतिशत सफलता मिलती थी। उनके उपचार से ठीक हुए हजारों रोगियों के वर्णन इन्टरनेट पर पढ़े जा सकते हैं।
आप http://www.yahoo.com/ के flaxseedoil2 Group पर जाये ओर पढ़ें। वहां दी हुई जानकारियां देख कर आप दंग रह जायेंगे। क्या ये जानकारियां लोगों तक पहुंचाना हमारी जिम्मेदारी नहीं हैं??? आइये हम साथ मिल कर डॉ. योहाना बुडविज के इस वैकल्पिक और प्राकृतिक कैंसर उपचार को हमारे लोगों तक पहुंचाऎं।
इसी संदर्भ में मैंने नये लेख में डॉ. योहाना बुडविज के कैंसर रोधी आहार-विहार का सरल शब्दों में सचित्र वर्णन करने की कौशिश की है, जो आपको प्रकाशन हेतु भेज रहा है।
धन्यवाद,
जय अलसी जय भारत।
Dr. O.P.Verma
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