यह 'रागी' हुई अभागी क्यों?
चावल की किस्मत जागी क्यों?
जो 'ज्वार' जमी जन-मानस में,
गेहूँ के डर से भागी क्यों?
यूँ होता श्वेत 'झंगोरा' है।
यह धान सरीखा गोरा है।
पर यह भी हारा गेहूँ से,
जिसका हर कहीं ढिंढ़ोरा है!
जाने कितने थे अन्न यहाँ?
एक-दूजे से प्रसन्न यहाँ।
जब आया दौर सफेदी का,
हो गए मगर सब खिन्न यहाँ।
अब कहाँ वो 'कोदो'-'कुटकी' है?
'साँवाँ' की काया भटकी है।
संन्यासी हुआ 'बाजरा' अब,
गुम हुई 'काँगणी' छुटकी है।
अब जिसका रंग सुनहरा है।
सब तरफ उन्हीं का पहरा है।
अब कौन सुने मटमैलों की,
गेहूँ का साया गहरा है।
यह देता सबसे कम पोषण।
और करता है ज्यादा शोषण।
तोहफे में दिए रसायन अर
माटी-पानी का अवशोषण।
यह गेहूँ धनिया-सेठ बना।
उपभोगी मोटा पेट बना।
जो हज़म नहीं कर पाए हैं,
उनकी चमड़ी का फेट बना।
अब आएँगे दिन 'रागी' के।
उस 'कुरी', 'बटी', बैरागी के।
जब 'राजगिरा' फिर आएगा
और ताज गिरें बड़भागी के।
जब हमला हो 'हमलाई' का।
छँट जाए भरम मलाई का।
चीनी पर भारी 'चीना' हो,
टूटेगा बंध कलाई का।
बीतेगा दौर गुलामी का।
गोरों की और सलामी का।
जो बची धरोहर अपनी है,
गुज़रा अब वक्त नीलामी का।
जिसने भी यह कविता लिखी है उस लेखक का हार्दिक आभार
नोट :- रागी, ज्वार, झंगोरा, कोदो, कुटकी, साँवाँ, बाजरा, काँगणी, कुरी, बटी, राजगिरा, हमलाई, चीना ये सब विभिन्न प्रकार के अन्न (millets) हैं, जो गेहूँ और चावल की साज़िश के शिकार हुए हैं। कविताप्रतीकात्मक है, जो मात्र अनाजों तक सीमित नहीं है।
1 comment:
This is my poem. Been floating over social media without any credit. Please check the link for original post.
Regards,
Ramawtar Singh
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