Wednesday, December 18, 2013

मल्टीपल माइलोमा

मल्टीपल माइलोमा प्लाज्मा सेल्स का कष्टदायक कैंसर है। प्लाज्मा सेल्स अस्थिमज्जा या बोनमेरो में पाये जाते हैं और हमारे रक्षातंत्र के प्रमुख सिपाही हैं। विदित रहे कि हड्डियों के अंदर स्थित गूदे को अस्थिमज्जा या बोनमेरो कहते हैं। यह एक कारखाना है जहां खून में पाई जाने वाली सभी कोशिकाएं तैयार होती हैं। यह रोग 1848 में परिभाषित किया गया। 

रक्षातंत्र में कई तरह की कोशिकाएं होती हैं जो साथ मिल कर संक्रमण या किसी बाहरी आक्रमण का मुकाबला करती हैं। इनमें लिम्फोसाइट्स प्रमुख हैं। ये मुख्यतः दो तरह की होती हैं टी-सेल्स और बी-सेल्स। 

जब शरीर पर किसी जीवाणु का आक्रमण होता है तो बी-सेल्स परिपक्व होकर प्लाज्मा सेल्स बनते हैं। ये प्लाज्मा सेल्स अपनी सतह पर एंटीबॉडीज (जिन्हें इम्युनोग्लोब्युलिन भी कहते हैं) बनाते हैं, जो जीवाणु से युद्ध कर उनका सफाया करते हैं। लिम्फोसाइट्स शरीर के कई हिस्सों जैसे लिम्फ नोड, बोनमेरो, आंतों और खून में पाये जाते हैं। लेकिन प्लाज्मा सेल्स अमूमन बोनमेरो में ही पाए जाते हैं। 

जब प्लाज्मा सेल्स कैंसरग्रस्त होते हैं, तो वे अनियंत्रित होकर तेजी विभाजित होने लगते हैं और गांठ का रूप ले लेते हैं जिसे प्लाज्मासाइटोमा कहते हैं। यदि एक ही गांठ बनती है तो इसे आइसोलेटेड या सोलिटरी प्लाज्मासाइटोमा कहते हैं, लेकिन यदि एक से अधिक गांठे बनती हैं तो इसे मल्टीपल माइलोमा कहते हैं। ये गांठें मुख्यतः अस्थिमज्जा में बनती हैं। 


मल्टीपल माइलोमा में तेजी से बढ़ते प्लाज्मा सेल्स बोनमेरो में फैल जाते हैं और दूसरी कोशिकाओं को बढ़ने के लिए पर्याप्त जगह नहीं मिल पाती है। फलस्वरूप अन्य कोशिकाओं की आबादी कम होने लगती है। यदि आर.बी.सी. का निर्माण कम होने लगे मरीज एनीमिया का शिकार हो जाता है, उसे कमजोरी व थकान होती है और शरीर सफेद पड़ जाता है। प्लेटलेट्स कम (Thrombocytopenia) होने पर रक्तस्त्राव होने का खतरा रहता है। डब्ल्यु.बी.सी. कम (Leucopenia) होने पर संक्रमण हो सकते हैं। 

माइलोमा में हड्डियां भी कमजोर होने लगती है। हड्डियों को स्वस्थ और मजबूत रखने का कार्य दो तरह की कोशिकाएं करती हैं, जो मिल कर काम करती हैं। जहां ओस्टियोब्लास्ट कोशिकाएं नये अस्थि-ऊतक बनाती हैं, वहीं ओस्टियोक्लास्ट कोशिकाएं पुराने अस्ति-ऊतक को गलाने का काम करती हैं। माइलोमा सेल्स ओस्टियोक्लास्ट एक्टिवेटिंग फेक्टर का स्त्राव करते हैं, जिसके प्रभाव से ओस्टियोक्लास्ट तेजी से हड्डी को गलाने लगते हैं। दूसरी तरफ ओस्टियोब्लास्ट को नये अस्ति-ऊतक बनाने के आदेश नहीं मिल पाते हैं फलस्वरूप हड्डियां कमजोर व खोखली होने लगती हैं, मरीज को दर्द होती है और अनायास हड्डियां चटकने व टूटने लगती है। हड्डियां कमजोर होने से उनका कैल्शियम भी पिघलने लगता है और खून में कैल्शियम का स्तर बढ़ने लगता है। 

असामान्य और कैंसरग्रस्त प्लाज्मा सेल्स संक्रमण से लड़ने लायक एंटीबॉडीज बनाने में असमर्थ होते हैं। अतः ये शरीर
की रक्षा करने में पूरी तरह नाकामयाब रहते हैं। माइलोमा सेल्स एक ही प्लाज्मा सेल की अनेक कार्बन कॉपीज की तरह होते हैं और ये एक ही तरह की मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज या M प्रोटीन बनाते हैं। यह माइलोमा की खास विकृति है। इस प्रोटीन को पेराप्रोटीन या M स्पाइक भी कहते हैं। जब अस्थि-मज्जा, खून में इस प्रोटीन की मात्रा बढ़ने लगती है तो मरीज के कई परेशानियां होती हैं। इम्युनोग्लेब्युलिनेस प्रोटीन चेन्स 2 लंबी (heavy) और 2 छोटी (light) से बने होते हैं। कई बार गुर्दे इस M प्रोटीन का पेशाब में विसर्जन करते हैं। पेशाब में निकलने वाले इस प्रोटीन को लाइट चेन या बेन्स जोन्स प्रोटीन कहते हैं। ये किडनी को क्षति पहुँचा सकते हैं।

अमेरिकन कैंसर सोसाइटी के अनुसार अकेले अमेरिका में हर वर्ष मल्टीपल माइलोमा के 20,000 नये रोगी पाये जाते हैं। अमेरिका में माइलोमा का आघटन 1% है। अफ्रीकी अमेरिकन्स में आघटन 2% है। यह वृद्धावस्था का रोग है, इसके आघटन की औसत उम्र 68-70 वर्ष है। स्त्रियों की तुलना में यह पुरुषों में ज्यादा होता है। यहां औसत 5 वर्षीय जीवन काल लगभग 35% है। इसके युवा रोगी अपेक्षाकृत ज्यादा जी पाते हैं। सन् 2010 में पूरे विश्व में 74000 लोगों की मृत्यु मल्टीपल माइलोमा से हुई है। नॉन- होजकिन्स लिंफोमा के बाद यह सबसे आम हिमेटोलोजी का कैंसर है। विश्व में कैंसर के 1% रोगी मल्टीपल माइलोमा के होते हैं और कैंसर से मरने वाले 2% रोगी माइलोमा के होते हैं। 

इस रोग का कारण अज्ञात है। लेकिन आनुवंशिक, वातावरण और व्यावसायिक संबंधी कुछ जोखिम घटक चिन्हित किये गये हैं। 

माइलोमा के विभिन्न रूप 



मोनोक्लोनल गेमोपेथी ऑफ अनडिटरमिन्ड सिगनीफिकेंस (MGUS)

इस रोग में असामान्य प्लाज्मा सेल्स बहुत सा मोनोक्लोनल प्रोटीन बनाते हैं, लेकिन इन रोगियों में ट्यूमर या गांठें नहीं बनती और मल्टीपल माइलोमा की तरह इन्हें कोई अलामात भी नहीं होते। खासकर इसमें हड्डियां कमजोर नहीं पड़ती, कैल्शियम नहीं बढ़ता, गुर्दे खराब नहीं होते और रक्ताणु भी कम नहीं होते। मरीज सामान्य जीवन जीता है। इस रोग का पता अचानक तभी पड़ता है जब किसी अन्य बीमारी के लिए हुई खून की जांच में प्रोटीन ज्यादा आता है और फिर दूसरी जांचों से पता चलता है कि यह प्रोटीन मोनोक्लोनल प्रोटीन है। MGUS में प्लाज्मा सेल्स बढ़ते हैं लेकिन इनका प्रतिशत 10 से कम ही रहता है। 

Parameter
MGUS
Smouldering Myeloma
Multiple Myeloma

Monoclonal Proteins
< 3 g
>3 g
>3 g
Bone marrow Plasma cells
< 10%
>10%
> 10%
Treatment
Wait & Watch
Wait & Watch
Chemo & Bonemarrow Transplantation
CRAB Symptoms
No
No
HyperCalcemia  >2.75 mmol/L
Renal insufficiency
Anemia (hemoglobin <10 g/dL)
Bone lesions (lytic lesions with compression fractures)

टूटता  बदन  और  शरीर  में  थकान  है
हर   अँगड़ाई  पे  निकले  मेरी  जान  है 
हड्डियों  में   चटकन,   गुर्दे   नाशाद   है 
मुझे इश्क नहीं यारों मरजे माइलोमा है 
आगे चल कर MGUS के कई रोगियों को (लगभग 1%) मल्टीपल माइलोमा, लिम्फोमा या ऐमायलोडोसिस के शिकार हो सकते हैं। इन रोगियों को कोई उपचार नहीं दिया जाता, लेकिन चिकित्सक की निगरानी में रखा जाता है। 



स्मोल्डरिंग माइलोमा (Smouldering myeloma)

स्मोल्डरिंग मल्टीपल माइलोमा लक्षणहीन माइलोमा है। इसके रोगी को कोई तकलीफ नहीं होती। यह MGUS और मल्टीपल माइलोमा के बीच की स्थिति है। स्मोल्डरिंग माइलोमा में निम्न में से एक विकृति जरूर होती है। 

 बोनमेरो में प्लाज्मा सेल 10% या अधिक होते हैं। 

 खून में प्रोटीन 30 g/L या ज्यादा होते हैं। 

स्मोल्डरिंग मल्टीपल माइलोमा में क्रेब लक्षण ऐनीमिया, किडनी फेल्यर, कैल्शियम स्तर का बढ़ना और अस्थि-विकार नहीं होते। लेकिन इन रोगियों को कभी भी मल्टीपल माइलोमा हो सकता है। इन्हें उपचार नहीं दिया जाता लेकिन कड़ी निगरानी में रखा जाता है। 



सोलिटरी प्लाज्मासाइटोमा 


यह भी असामान्य और विकृत प्लाज्मा सेल्स का ट्यूमर है। लेकिन मल्टीपल माइलोमा के विपरीत इसमें एक ही जगह ट्यूमर होता है। इसीलिए इसे सोलिटरी प्लाज्मासाइटोमा कहते हैं। यह प्रायः बोनमेरो में उत्पन्न होता है, तब इसे आइसोलेटेड प्लाज्मासाइटोमा कहते हैं। लेकिन यदि इसकी उत्पत्ति अन्य अंगों (जैसे फेफड़ा, साइनस की इपिथीलियम, गला या कोई अन्य अंग) में होती है तो इसे एक्सट्रामेड्युलरी प्लाज्मासाइटोमा कहते हैं। इसका उपचार रेडियेशन या शल्य द्वारा किया जाता है। सोलिटरी प्लाज्मासाइटोमा के कई रोगियों को आगे चल कर मल्टीपल माइलोमा हो सकता है। इसलिए इन पर भी पूरी निगरानी रखी जाती है। 


लक्षण 


मल्टीपल माइलोमा में शरीर के कई अंग प्रभावित होते हैं, इसलिए मरीज को मुख्तलिफ अलामात हो सकते हैं। इसके शुरूवाती लक्षण हड्डियों में दर्द होना, अचानक हड्डियां चटक जाना (Pathologic Fracture), कमजोरी, थकान, खून की कमी, संक्रमण (प्रायः न्युमोकोकल), खून में कैल्शियम बढ़ जाना, मेरुरज्जु पर दबाव के लक्षण या किडनी फेल्यर हैं। कई बार ऑपरेशन या अन्य तकलीफ के लिए हुई खून की जांच से इस बीमारी का पता चलता है। कभी ब्लड कैमिस्ट्री में टोटल प्रोटीन की और ऐल्ब्युमिन की मात्रा में ज्यादा फर्क होना किसी गंभीर बीमारी होने का शक पैदा करता है (विदित रहे कि कुल प्रोटीन - ऐल्ब्युमिन = ग्लोब्युलिन)। बोनमेरो में प्लाज्मा सेल्स की बढ़ती आबादी के दबाव और आतंक के कारण लाल रक्ताणु, श्वेत रक्ताणु और बिंबाणुओं का जिंदा रहना मुश्किल हो जाता है और बेचारों की आबादी कम होने लगती है। नतीजा होता है एनीमिया, न्युट्रोपीनिया और थ्रोम्बोसाइटोपीनिया। 



माइलोमा के प्रमुख लक्षण क्रेब (CRAB) नेमोनिक द्वारा याद रखे जा सकते हैं। CRAB का मतलब है: C = Calcium elevated, R = Renal failure, A = Anemia, B = Bone lesions



हड्डियों में दर्द और टूटन 
एक तिहाई मरीजों में सबसे पहला लक्षण प्रायः मेरुदंड में किसी हड्डी का टूटना होता है। यह सबसे प्रमुख लक्षण है और मल्टीपल माइलोमा के 93% मरीजों में एक से अधिक हड्डियों में फ्रेक्चर मिल ही जाता है। यदि किसी जगह लगातार दर्द हो रहा है तो यह फ्रेक्चर का संकेत है। दो तिहाई मरीज प्रायः कमर, कूल्हे, खोपड़ी और / या हाथ पैरों की लंबी हड्डियों में दर्द की शिकायत करते हैं। मरीज को खून गाढ़ा होने और कैल्शियम बढ़ने के कारण भी कुछ लक्षण हो सकते हैं। 


मेरुरज्जु पर दबाव
यह एक गंभीर विकार है, और माइलोमा के 20% रोगी इसका शिकार हो सकते हैं। मेरुदंड की हड्डियों में ट्यूमर,
अस्थि-क्षय (Lytic Bone Lesions) या नाड़ियों पर दबाव पड़ना इसके कारण हैं। कमजोर होना और कमर में दर्द, कमजोरी, लकवा, संवेदनशून्यता और हाथ-पैरों में जलन या चुभन जैसे लक्षण मेरुरज्जु पर दबाव की तरफ इशारा करते हैं। भी हो सकता है। मेरुरज्जु में दबाव कई स्तर पर हो सकता है, इसलिए मेरुदंड की विस्तृत जांच जरूरी है। .

रक्तस्त्राव 
प्लेटलेट्स की कमी के कारण रक्तस्त्राव हो सकता है। कभी कभार मोनोक्लोनल प्रोटीन खून को जमाने (Clotting) में सहायक तत्वों को सोख कर निष्क्रिय कर देते हैं और रक्तस्त्राव का सबब बन सकते हैं। 

खून में कैल्शियम बढ़ना (Hypercalcemia) 
खून में कैल्शियम बढ़ने से अफरा-तफरी, सुस्ती, हड्डी में दर्द, कब्ज, मतली, बार-बार पेशाब लगना और प्यास अधिक लगना जैसे लक्षण हो सकते हैं। 30% मरीजों में यह तकलीफ हो सकती है। 

संक्रमण 
रक्षातंत्र के असंयत होने और श्वेताणुओं में कमी आने से संक्रमण होने की संभावना प्रबल रहती है। मल्टीपल न्युमोकोकस रोगाणु सबसे अहम हमलावर है, लेकिन हर्पीज़ जोस्टर और हिमोफिलस भी संक्रमण फैला सकते हैं। माइलोमा में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण संक्रमण ही माना गया है। कीमो उपचार के शुरूवाती 2-3 महीनें में मौत का खतरा सबसे ज्यादा रहता है।
खून का गाढ़ापन (Hyperviscosity) 
खून गाढ़ा होने से बेचैनी, इन्फेक्शन, बुखार, सिरदर्द, निद्रा, सुन्नता, खंरोच (bruises), नजर में धुंधलापन आदि लक्षण हो सकते हैं। खून का गाढ़ापन अमूमन चार गुना बढ़ जाने पर मरीज को ये तकलीफें होती हैं। कई बार नकसीर हो सकती है। खून गाढ़ा होने का कारण मोनोक्लोनल प्रोटीन का बढ़ना है जो कभी कभार स्ट्रोक, मायोकार्डियल इस्कीमिया या इन्फार्क्शन का सबब भी बन सकता है।
नाड़ी विकार
कार्पल टनल सिंड्रोम, मेनिन्जाइटिस और पेरीफ्रल न्युरोपेथी भी माइलोमा के सामान्य लक्षण हैं। 

एनीमिया 
हीमोग्लोबिन कम होना भी कमजोरी का प्रमुख कारण बनता है। 

भौतिक परीक्षण 

आंखों में ऐग्जुडेटिव मेक्युलर डिटेचमेंट, रेटाइनल हेमरेज या कॉटन वूल पेचेज देखे जा सकते हैं। एनीमिया के कारण शरीर सफेद पड़ सकता है। प्लेटलेट कम होने से परपुरा या एकाइमोसेस हो सकते हैं। मल्टीपल माइलोमा में हड्डियों में दर्द असामान्य नहीं है। हड्डियों का गलना और टूटना (Pathologic fractures) इसके खास सबब हैं। तिल्ली और जिगर बढ़ सकता है। प्रोटीन जमा होने के कारण दिल का आकार भी बढ़ सकता है। माइलोमा के कुछ मरीजों को ऐमाइलोयडोसिस हो सकता है। इनको निम्न लक्षण हो सकते हैं। 

 कंधे में सूजन - एमाइलोयड जमा होने से दोनों कंधे के जोड़ों में सख्त और लचीली (rubbery) सूजन हो सकती है। कार्पल टनल सिंड्रोम और त्वचा में गांठें भी हो सकती हैं। 
 मेक्रोग्लोसिया (जीभ बड़ी हो जाना) 
 त्वचा के विकार – होंठ, कान या धड़ की त्वचा पर पेप्यूल और नोड्यूल हो सकते हैं। 
 पोस्ट प्रोटोस्कोपिक पेरिपेलपेब्रल परपुरा (Post-protoscopic peripalpebral purpura) – नाक बंद करके
Macroglossia
जोर से सांस निकालने पर आँखों के चारों तरफ डार्क सर्कल्स बन जाते हैं। यह ऐमाइलोयडोसिस का खास संकेत है। 

किडनी फेल्यर
मल्टीपल माइलोमा गुर्दों पर सीधा प्रहार करता है। इसमें बनने वाला प्रोटीन गुर्दों में जाकर जमा होने लगता है और नुकसान पहुँचाता है। कैल्शियम का बढ़ता स्तर भी गुर्दों को खराब करता है। इसमें दी जाने वाली दवाइयां जासे बिसफोस्फोनेट्स आदि भी गुर्दों को नुकसान पहुँचाती है। यदि रोगी को ब्लडप्रेशर या डायबिटीज है तो इनका सुचारु इलाज भी जरूरी है ताकि इनसे गुर्दों को बचाया जा सके। प्रारंभिक अवस्था में गुर्दे की खराबी को ठीक किया जा सकता है। मल्टीपल माइलोमा के 25% मरीजों में अमूमन गुर्दे की तकलीफ या फेल्यर होता है। माइलोमा में साथ ही निम्न विकार हो सकते हैं। 

 माइलोमा किडनी सिंड्रोम (मुख्तलिफ कारणों से)
 ऐमाइलोयडोसिस लाइट चेन्स के साथ 
 किडनी स्टोन्स – खून में कैल्शियम बढ़ने के कारण

निदानीय कार्य 

मल्टीपल माइलोमा के निदान का प्रमुख आधार चिकित्कीय लक्षण (Clinical) और खून व मोनमेरो की जांच है।
Rouleaux formation
किडनी फेल्यर की संभावना को सदैव ध्यान में रखना चाहिये। इसलिए मरीज का एक्सरे या आइ.वी.पी. करते समय कॉन्ट्रास्ट मीडियम के इंजेक्शन की मात्रा और एक्सरे के एक्सपोजर को सिमित रखना चाहिये और मरीज को पानी की कमी न होने दें। 

सीबी.सी. 
सीबी.सी. में हिमोग्लोबिन, लाल रक्ताणु, श्वेत रक्ताणु और बिंबाणुओं की गणना की जाती है, जिनसे हमें एनीमिया, न्युट्रोपीनिया और थ्रोम्बोसाइटोपीनिया की उपस्थिति का पता चल जाता है। सीबी.सी. और डी.एल.सी. से कोएगुलेशन समेत कई जानकारियां मिल जाती हैं। माइलोमा में ई.एस.आर. काफी बढ़ा रहता है। रेटिकुलोसाइट काउंट काफी कम रहता है। खून की स्लाइड में लाल रक्ताणुओं में रोलो फोरमेशन दिखाई देता है। खून में M प्रोटीन बढ़ने से लाल रक्ताणु M प्रोटीन से चिपक कर लड़ियों की तरह दिखाई देते हैं, इसे ही रोलो फोरमेशन (rouleaux formation) कहते हैं। 

बॉयोकैमिस्ट्री 
में टोटल प्रोटीन, ऐल्बयुमिन, ग्लोबयुलिन, यूरिया, क्रियेटिनीन और यूरिक एसिड की जांच की जाती है। यदि यूरिक एसिड बढ़ जाता है। 

पेशाब की जांच 
24 घंटे का पेशाब इकट्ठा किया जाता है और इसमें बेन्स जोन्स प्रोटीन (lambda light chains), प्रोटीन की मात्रा और क्रियेटिनीन क्लियरेंस की गणना की जाती है। पेशाब में प्रोटीन की गणना मल्टीपल माइलोमा के निदान और दवाओं का प्रभाव पर निगरानी रखने के लिए बहुत जरूरी मापदंड है। 24 घंटे के पेशाब में 1 ग्राम से ज्यादा प्रोटीन माइलोमा का संकेत है। क्रियेटिनीन क्लियरेंस से किडनी की कार्यक्षमता का अनुमान लग जाता है। 

इलेक्ट्रोफोरेसिस और इम्युनोफिक्सेशन 
सीरम प्रोटीन इलेक्ट्रोफोरेसिस (SPEP) से प्रोटीन की श्रेणी का पता लगाया जाता है और यह एक खास ग्राफ
(Mस्पाइक) बना कर देता है। यूरीन प्रोटीन इलेक्ट्रोफोरेसिस (UPEP) से पेशाब में बेन्स जोन्स प्रोटीन्स (लाइट चेन) की मात्रा का पता चलता है। इम्युनोफिक्सेशन से प्रोटीन की उपश्रेणी (जैसे IgA लेम्बडा) का पता चलता है। 

कैल्शियम और क्रियेटिनीन समेत अन्य बायोकैमिस्ट्री जांच, SPEP, इम्युनोफिक्सेशन और इम्युनोग्लोब्युलिन की मात्रात्मक जांच से ऐजोटीमिया (खून में नाइट्रोजनयुक्त तत्वों जैसे यूरिया और क्रियेटिनीन आदि का स्तर बढ़ना), खून में कैल्शियम का स्तर बढ़ जाना, एल्केलाइन फोस्फेटेज का स्तर, और खून में ऐल्ब्युमिन की कमी का पता चलता है। 
SPEP से M प्रोटीन्स की उपस्थिति की जानकारी मिलती है। M घटक प्रायः हाई रिजोल्युशन SPEP द्वारा पहचाना जाता है। कप्पा और लेम्बडा के अनुपात से M घटक विकार संबंधी जानकारी मिलती है। खून में M घटक की 30 g/L मात्रा मल्टीपल माइलोमा के निदान का न्यूनतम मापदंड है। है। मल्टीपल माइलोमा के 25% मरीजों में SPEP द्वारा M प्रोटीन्स को पहचानना संभव नहीं हो पाता है। 

पेशाब की साधारण जांच से बेन्स जोन्स प्रोटीन्स का पता नहीं चलता है। इसलिए 24 घंटे के पेशाब की UPEP या इम्युनोइलेक्ट्रोफोरेसिस जांच की जाती है। UPEP या इम्युनोइलेक्ट्रोफोरेसिस जांच से M घटक और कप्पा या लेम्बडा लाइट चेन्स को भी पहचान लिया जाता है। इस तरह मल्टीपल माइलोमा के निदान हेतु सबसे प्रमुख जांच खून और पेशाब में इम्युनोग्लोब्युलिन की इल्क्ट्रोफोरिक गणना है। 

इम्युनोग्लोब्युलिन के स्तर की मात्रात्मक गणना (IgG, IgA, IgM) 
मल्टीपल माइलोमा के निदान हेतु नॉन-माइलोमेटोसिस इम्युनोग्लोब्युलिन का कम होना एक छोटा मापदंड है। लेकिन M प्रोटीन की मात्रा दवाओं के असर को देखने का अच्छा मार्कर है। 

बीटा-2 माइक्रोग्लोब्युलिन
यह ट्यूमर के औसत दबाव का एक सहायक मापदंड है। बीटा-2 माइक्रोग्लोब्युलिन का स्तर किडनी फेल्यर में भी बढ़ जाता है, भले मरीज को मल्टीपल माइलोमा नहीं हुआ हो। लेकिन बीटा-2 माइक्रोग्लोब्युलिन को मल्टीपल माइलोमा के फलानुमान का सूचक माना जाता है। 

सी-रियेक्टिव प्रोटीन
यह इंटरल्युकिन IL-6 का सहायक मार्कर (surrogate marker) माना जाता है। IL-6 को प्रायः प्लाज्मा ग्रोथ फेक्टर भी माना जाता है। बीटा-2 माइक्रोग्लोब्युलिन की तरह IL-6 भी फलानुमान का सूचक माना जाता है। 

खून का गाढ़ापन (Serum Viscosity) 
जिन मरीजों में नकसीर, नाड़ी रोग के लक्षण या खून में M प्रोटीन बहुत ज्यादा हो तो खून के गाढ़ेपन की जांच की
जाती है। 

एक्सरे चित्रण 
मल्टीपल माइलोमा का संदेह होने पर खोपड़ी, मेरुदंड और हाथ-पैरों के एक्सरे लिए जाते हैं। हड्डियों के निरीक्षण के लिए यह बहुत अहम जांच है। माइलोमा में हड्डियां गलने लगती हैं। ऐसा लगता है जैसे इनको दीमक लग गई हो। हड्डियों में जगह जगह गोल और गहरे निशान दिखाई देते हैं। 

लेकिन सी.टी.स्केन से ज्यादा स्पष्ट और विस्तृत तस्वीरें प्राप्त होती हैं। कई बार सी.टी.स्केन से हमें पता चल जाता है कि हड्डी में किस जगह फ्रेक्चर होने की संभावना है। हड्डियों का घनत्व कम हो रहा हो तो समझ में आता है कि हड्डियां कमजोर होने वाली हैं। एक्सरे से ऐसी जानकारियां नहीं मिल पाती है। 

एम. आर. आई.
एम. आर. आई. से छाती और कमर वाले हिस्से में स्पाइन के क्षयन (Lytic lesions) और स्पाइनल कोर्ड के दबाव की जानकारी प्रारंभिक अवस्था में ही हो जाती है। एम.आर.आई. लक्षणहीन गेमोपेथी (Asymptomatic Gammopathies) के रोगियों में स्पाइन की 40% खराबी को पकड़ लेता है, जब कि उनके एक्सरे सामान्य होते हैं। यह स्पाइन कोर्ड के विकार और स्पाइन के महीन फ्रेक्चर भी प्रारंभिक अवस्था को पकड़ लेता है। 

एस्पिरेशन और बायोप्सी 
मल्टापल माइलोमा में अस्थि मज्जा के प्लाज्मा सेल्स बढ़ जाते हैं। प्लाज्मा सेल्स के प्रसार और विस्तार की गतिविधि
Eccentric nucleus with clumped chromatin
and has a perinuclear halo 
लेबलिंग इंडेक्स द्वारा आंकी जाती है। यह इंडेक्स माइलोमा के निदान का विश्वसनीय मापदंड है। लेबलिंग इंडेक्स के बढ़ने का बीमारी के विस्तार से सीधा संबंध है। 

बोनमेरो से द्रव्य निकाल कर एस्पिरेट और बायोप्सी जांच की जाती है और बोनमेरो मे प्लाज्मा सेल्स का प्रतिशत निकाला जाता है (स्वस्थ बोनमेरो में 3% तक प्लाज्मा सेल्स होते हैं)। बायोप्सी में प्लाज्मा सेल्स परतों या गुच्छों में दिखाई देते हैं। बोनमेरो बायोप्सी ज्यादा सटीक जानकारी मिलती है। 

हिस्टोलोजी के नतीजे
प्लाज्मा सेल्स आकार में लिम्फोसाइट से 2-3 गुना बड़ा होता है, इनका न्युक्लियस उत्केन्द्री (Eccentric), गोल या अंडाकार, सतह चिकनी, क्रोमेटिन गुच्छेदार (Clumped) और चारों तरफ हल्के रंग का घेरा (Perinuclear Halo) होता है। इसका साइटोप्लाज्म नीला (Basophilic) होता है। 

कई माइलोमा सेल्स के साइटोप्लाज्म में इम्युनोग्लोब्युलिन से बने विशिष्ट उपांग (Cytoplasmic Inclusions)
दिखाई देते हैं। ये कई रूप जैसे मोट सेल, रुजल बॉडीज, ग्रेप सेल्स और मोर्युला सेल्स में हो सकते हैं। 

हड्डी की बायोप्सी के नमूनों में प्लाज्मोलीटिक (औसत जीवन काल 39.7 महीने), मिश्रित (औसत जीवन काल 16.1 महीने) और प्लाज्मोब्लास्टिक सेल्स (औसत जीवन काल 9.8 महीने) गतिविधि दिखाई पड़ सकती है। 

साइटोजेनेटिक जांच 
इससे मल्टीपल माइलोमा के फलानुमान के संबंध में अहम जानकारियां मिलती हैं। सबसे महत्वपूर्ण विकृति 17p13 का लोप होना है। इस विकृति के होने का मतलब है बोनमेरो के अलावा अन्यत्र भी गांठे होना (extramedullary disease), खून में कैल्शियम बढ़ना (hypercalcemia) और जीवन काल कम होना। यह TP53 ट्यूमर सप्रेसर जीन पर स्थित रहती है। क्रोमोजोम 1 और c-myc विकृतियां भी अर्थपूर्ण मानी गई हैं। 

स्टेजिंग सिस्टम 

इंटरनेशनल स्टेजिंग सिस्टम ISS 
इंटरनेशनल माइलोमा वर्किंग ग्रुप ने 2005 में इंटरनेशनल स्टेजिंग सिस्टम के तीन चरण परिभाषित किये हैं। 
स्टेज I 
बीटा-2 माइक्रोग्लोब्युलिन 3.5 mg/L से कम और एल्ब्युमिन 3.5 g/dL या अधिक 
स्टेज II
बीटा-2 माइक्रोग्लोब्युलिन 3.5 mg/L से कम और एल्ब्युमिन 3.5 g/dL से कम या 
बीटा-2 माइक्रोग्लोब्युलिन 3.5 से 5.5 mg/L के बीच भले सीरम एल्ब्युमिन कुछ भी हो 
स्टेज III 
बीटा-2 माइक्रोग्लोब्युलिन 5.5 mg/L या अधिक हो 
ध्यान रहे कि ISS सिर्फ मल्टीपल माइलोमा के उन मरीजो में ही प्रयोग करें जो मल्टीपल माइलोमा के डायग्नोस्टिक क्राइटेरिया में आते हों। MGUS और लक्षणहीन माइलोमा के उन मरीजों को स्टेज III में नहीं रखा जा सकता जिनका बीटा-2 माइक्रोग्लोब्युलिन डायबिटीज या ब्लडप्रेशर आदि के कारण हुए किडनी फेल्यर की वजह से बढ़ा हुआ हो। यह ISS की कमजोरी है। इसीलिए ISS के साथ ड्यूरी-सामन स्टेजिंग सिस्टम भी प्रयोग किया जाता है। 

ड्यूरी-सामन स्टेजिंग सिस्टम
यह 1975 में विकसित गठित किया गया और अभी तक प्रयोग में लिया जा रहा है। इसमें एक कमी यह है कि इससे अस्थि विकार के विस्तार संबंधी जानकारी नहीं मिल पाती। 

स्टेज I 
 हीमोग्लोबिन 10g/dL से अधिक हो 
 कैल्शियम सामान्य हो 
 अस्थि निरीक्षण – सामान्य या सिंगल प्लाज्मासाइटोमा या ऑस्टियोपोरोसिस
 पेराप्रोटीन स्तर 5 g/dL से कम यदि IgG, , 3 g/dL से कम यदि IgA
 पेशाब में लाइट चेन्स का विसर्जन 4 g/24h से कम 
स्टेज II जो न स्टेज I की परिभाषा में आते हों और न स्टेज III की परिभाषा में आते हों 
स्टेज III 
 हिमोग्लोबिन 8.5 g/dL से कम हो 
 कैल्शियम 12 mg/dL से अधिक हो
 अस्थि निरीक्षण – तीन या अधिक लीटिक लीजन हो 
 पेराप्रोटीन स्तर 7 g/dL से ज्यादा यदि IgG, , 5 g/dL से ज्यादा यदि IgA
 पेशाब में लाइट चेन्स का वित्सर्जन 12 g/24h से ज्यादा
ड्यूरी-सामन स्टेजिंग सिस्टम के स्टेज I, स्टेज II और स्टेज III को क्रियेटिनीन के स्तर के अनुसार A या B में भी वर्गीकृत किया जाता है। 

A – क्रियेटिनीन 2 mg/DL से कम हो (< 177 μmol/L) B – क्रियेटिनीन 2 mg/dLसे अधिक हो (> 177 μmol/L) 

उपचार

मल्टीपल माइलोमा के निदान और चरण निर्धारण करने के बाद उपचार की रूपरेखा तैयार की जाती है। वैसे माइलोमा क्योर करना संभव नहीं है लेकिन यह बहुत काबिले इलाज बीमारी है। क्योंकि पिछले 15 वर्षों में इस रोग के निदान और उपचार में बहुत शोध और प्रगति हुई है। आज हमारे पिटारे में बहुत अच्छी और नई दवाइयां हैं, जो ज्यादा बेहतर तरीके से काम करती है। हड्डियों की गलन और फ्रेक्चर्स के लिए नये उपचार हैं। इसकी पेचीदगियों के इलाज के लिए नये संसाधन हैं। जहां पहले यह रोग आदमी को अपाहिज व लाचार बना देता था, उसका हंसता खेलता जीवन व्हील चेयर में सिमट कर रह जाता था और वह मुश्किल से 2-3 साल जी पाता था। वहीं आज मल्टीपल माइलोमा का मरीज इलाज लेते हुए 10 साल या उससे भी ज्यादा जी रहा है और सुकून से जी रहा है। मरीज की जीवनशैली खुशहाल और उन्दा होती जारह है। मरीजों को इलाज संबंधी निर्णय बड़े इत्मिनान से सोच समझ कर लेना चाहिये। वे किसी दूसरे विशेषज्ञ की राय भी ले सकते हैं। आजकम माइलोमा के लिए निम्न उपचार दिये जाते हैं। 

 कीमोथेरेपी व अन्य दवाइयां
 बिसफोस्फोनेट्स
 स्टेम सेल ट्रांसप्लांट 
 रेडियेशन
 शल्य
 बायोलोजिकल थेरेपी
 प्लाज्माफरीसिस 

प्रारंभिक उपचार
मल्टीपल माइलोमा का शुरूआती इलाज मरीज की उम्र व मर्ज की गंभीरता और पेचीदगियों पर निर्भर करता है। 65

वर्ष से कम उम्र के मरीजों में आजकल हाई डोज कीमोथेरेपी और ऑटोलोगस स्टेमसेल ट्रांसप्लांटेशन चिकित्सकों का पसंदीदा उपचार है। स्टेमसेल ट्रांसप्लांट के पहले इंडक्शन कीमो दी जाती है। इसके लिए प्रचलित रिजीम्स में थेलिडोमाइड-डेक्सामिथेजोन, बोर्टेजुमेब या लेनोलिनेमाइड - डेक्सामिथेजोन प्रयोग की जाती है। ऑटोलोगस स्टेमसेल ट्रांसप्लांटेशन (ASCT) में कीमोथेरेपी देने के बाद मरीज के पहले निकाले हुए स्टेमसेल्स खून में छोड़ कर दिये जाते हैं। आजकल यह बहुत प्रभावशाली और प्रचित उपचार माना जाता है। लेकिन इसमें खतरे भी हैं और 5-10% मरीज उपचार के दौरान ही मर जाते हैं। इस उपचार में मरीजों को फायदा होता है, वह शत प्रतिशत रेमिशन (complete remission) में आ सकता है और उनका जीवन काल बढ़ता है। इस अवधि में बीमारी नियंत्रण में रहती है, बढ़ती नहीं है और कुछ समय तक वह लगभग सुकून से जी लेता है। 

65 साल से बड़े या जिन्हें कई जटिलताएं हो चुकी हैं अमूमन स्टेमसेल ट्रांसप्लांटेशन सहन नहीं कर पाते हैं। ऐसे मरीजों को साधारण उपचार और कीमो (मेलफेलान और प्रेडनिसोलोन) दी जाती है। नई दवाओं जैसे बोर्टिजोमिब के अच्छे परिणाम मिल रहे हैं। बोर्टिजोमिब, मेलफेलान और प्रेडनिसोलोन या लेनोलिनोमाइड और डेक्सामिथेजोन या मेलफेलान, प्रेडनिसोलोन और लेनोलिनोमाइड अच्छे परिणाम दे रहे हैं।

मेंटेनेंस थेरेपी और रिलेप्स
कई बार शुरूआती इलाज के बाद थेलिडोमाइड, लेनालिनोमाइड या बोर्टेजोमिब मेंटेनेंस थेरेपी के रूप में दी जाती है। कैंसर ऐसा रोग है जो थोड़े समय बाद लौट कर आता है। ऐसी स्थिति में दोबारा से वही उपचार दिया जाता है या मेलफेलान, साइक्लोफोस्फेमाइड, थेलिडोमाइड दिया जाता है। डेक्सामिथेजोन को अकेले या संयुक्त रूप में दिया जाता है। दूसरे स्टेमसेल ट्रांसप्लांट का विकल्प भी खुला रखा जाता है। 

कीमोथेरेपी 

इसमें कैंसर कोशिकाओं को मारने की दवाइयां दी जाती हैं। लेकिन ये हमारी स्वस्थ कोशिकाओं को भी बहुत नुकसान पहुँचाती हैं और इनके कुप्रभाव भी तकलीफदेह होते हैं। प्रायः ये दवाइयां संयुक्त रूप में दी जाती हैं और तब ये ज्यादा असर करती हैं। इन्हें अक्सर स्टिरॉयड्स या इम्युनोमोड्यूलेट्री दवाओं के साथ दिया जाता है। 

पारंपरिक कीमो 
मल्टीपल माइलोमा में आजकल निम्न दवाइयां प्रयोग की जा रही हैं। 
 मेलफेलान 
 विनक्रिस्टीन (Oncovin)
 साइक्लोफोस्फेमाइड (Cytoxan)
 इटोपोसाइड (VP-16)
 डोक्सोरूबिसिन (Adriamycin)
 लाइपोजोमल डोक्सोरूबिसिन(Doxil)
 बेंडामस्टीन (Treanda)

कीमो के साइड इफेक्ट
ज्यादातर साइड इफेक्ट कुछ दिनों तक रहते हैं और दवाइयां बंद होने पर चले जाते हैं। लेकिन आपका डॉक्टर साइड इफेक्ट्स पर पूरी निगाह रखता है और इनको रोकने के लिए यथासंभव दवा या अन्य उपाय भी बताता है। कुछ दवाइयां शरीर के अहम अंगों जैसे हृदय या गुर्दे को स्थाई नुकसान पहुँचा सकती हैं। ऐसी स्थिति में दवा तुरंत बंद कर दी जाती है और उसकी जगह दूसरी दवा दी जाती है। 

 बाल उड़ना
 मुँह में छाले
 भूख न लगना
 मितली और उबकाई
 रक्ताणुओं की कमी
 कमजोर रक्षातंत्र और संक्रमण (श्वेत रक्ताणुओं की कमी)
 रक्तस्त्राव (बिंबाणुओं की कमी)
 कमजोरी और थकान (लाल रक्ताणु की कमी)

Chemotherapy of Multiple Myeloma
Primary therapy (transplant candidates)
Bortezomib (Velcade)/cyclophosphamide/dexamethasone VCD
Bortezomib/dexamethasone  
Doxorubicin/Bortezomib/dexamethasone DVD
Bortezomib/Lenalidomide(Revlimid))/dexamethasone  
Bortezomib/thalidomide/dexamethasone  
Lenalidomide/dexamethasone  
Primary treatment (non-transplant candidates)
Bortezomib/ Melphalan/Prednisone (VMP)
Melphalan/ prednisone/thalidomide (MPT)
Lenalidomide/dexamethasone  
Bortezomib/dexamethasone  
Melphalan/ prednisone (MP)
Lenalidomide/ Melphalan and Dexamethasone  
Treatment recommendations for maintenance therapy
Lenalidomide
Thalidomide
Treatment recommendations for salvage therapy
Lenalidomide/Dexamethasone RD
Pomalidomide
Lenalidomide or Thalidomide

कोर्टिकोस्टीरॉयड्स 
माइलोमा में स्टीरॉयड्स बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन्हे अकेले या अन्य दवाओं के साथ दिया जाता है। ये दूसरी दवाओं के कारण होने वाली मतली और उबकाई में भी फायदा करते हैं। ब्लड शुगर बढ़ जाना, भूख लगना और अनिद्रा इसके साइड इफेक्ट है। लंबे समय तक देने पर ये रक्षातंत्र को भी कमजोर बनाते हैं जिससे गंभीर संक्रमण हो सकता है। अधिकांश साइड इफेक्ट समय के साथ कम होने लगते हैं। डेक्सामीथेजोन और प्रेडनिसोलोन प्रचलित स्टीरॉयड्स हैं। 

इम्युनोमोड्यूलेट्री ड्रग्स 
हम अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हैं कि ये किस तरह रक्षातंत्र पर असर करते हैं। आजकल इस श्रेणी में तीन दवाएं काम में ली जा रही हैं। 

थेलिडोमाइड (Thalomid) 
थेलिडोमाइड कुछ दशकों पहले गर्भवती स्त्रियों को उबकाई रोकने के लिए दी जाती थी। लेकिन इससे उनके शिशुओं में बर्थ डिफेक्ट होने लगे तो इसे बाजार से उठा लिया गया। लेकिन बाद में इसे मल्टीपल माइलोमा के लिए प्रयोग किया जाने लगा। सुस्ती, थकावट, कब्ज, और नाड़ी शूल (neuropathy) इसके साइड इफेक्ट हैं। न्युरोपेथी गंभीर विकार है और कई बार दवा बंद करने पर भी दर्द नहीं जाता है। कई बार टांग में थ्रोम्बोसिस हो सकता है, जो फेफड़े में जाकर पल्मोनरी एम्बोलिज्म का कारण बन सकता है। 

लेनालिनोमाइड (Revlimid) 
लेनालिनोमाइड थेलिडोमाइड की तरह ही है, लेकिन माइलोमा में बहुत बेहतरीन साबित हो रही है। इसका मुख्य
साइड इफेक्ट प्लेटलेट्स और श्वेत रक्ताणुओं का कम हो जाना है। इससे न्युरोपेथी हो सकती है। इसमें थ्रोम्बोसिस का खतरा तो रहता है, परंतु थेलिडोमाइड जितना गंभीर नहीं। 

पोमेलिनोमाइड (Pomalyst) 
पोमेलिनोमाइड भी अन्य इम्युनोमोड्यूलेट्री ड्रग्स की तरह ही है। इसके प्रमुख साइड इफेक्ट्स लाल रक्ताणओं और बिंबाणुओं का कम हो जाता है। इसमें न्युरोपेथी की तकलीफ मामूली होती है और थ्रोम्बोसिस का खतरा भी रहता ही है। 

प्रोटीएजोम इन्हिबीटर्स 
ये प्रोटीएजोम नामक एंजाइम कॉम्पेक्स को निष्क्रिय करते हैं। यह एंजाइम कॉम्पेक्स कोशिका विभाजन को नियंत्रित रखने वाले प्रोटीन्स को तोड़ देता है। इनके भी कई साइड इफेक्ट होते हैं। 

बोर्टेजुमेब (Velcade) इस श्रेणी की पहली दवा है, जो माइलोमा के लिए अनुमोदित की गई। यह माइलोमा के कारण हुए किडनी विकार के मरीजों के उपचार में खासतौर पर फायदेमंद है। इसे नस में या त्वचा के नीचे इंजेक्शन द्वारा सप्ताह में एक या दो बार दिया जाता है। 

इसके प्रमुख साइड इफेक्ट मितली, उबकाई, थकान, दस्त लगना, कब्ज, बुखार, भूख नहीं लगना और रक्ताणुओं (श्वेत रक्ताणु और बिंबाणु) का कम होना है। इससे संक्रमण और रक्तस्त्राव का खतरा रहता है। बोर्टेजुमेब से दूरस्थ नाड़ी शूल (हाथ पैरं की अंगुलियों में दर्द व सिरहन होना और सुन्न हो जाना) भी हो सकता है। बोर्टेजुमेब से कुछ मरीजों को हरपीज जोस्टर हो जाती है। इससे बचने के लिए साथ में ऐसाइक्लोविर दी जाती है। 

कार्फिलजुमिब (Kyprolis) इस श्रेणी की नई दवा है। इसे उन मरीजों के लिए अनुमोदित किया गया है जो पहले बोर्टेजुमिब और इम्युनोमोड्यूलेट्री ड्रग्स ले चुके हैं। इसके इंजेक्शन प्रायः 4 हफ्ते की साइकल में दिये जाते हैं। ऐलर्जिक रियेक्शन से बचने के लिए पहली साइकिल में इसके हर इन्फ्युजन से पहले डेक्सामिथेजोन का इंजेक्शन दिया जाता है। थकावट, उबकाई, दस्त लगना, श्वासकष्ट, बुखार और रक्ताणुओं में कमी इसके साइड इफेक्ट हैं। इससे निमोनिया, दिल, जिगर या गुर्दे में खराबी जैसे गंभीर साइड इफेक्ट भी हो सकते हैं।

बिसफोस्फोनेट्स 

Osteonecrosis of Jaw - Serious and common 
side effect of Bisphosphonates
माइलोमा में हड्डियां गलने लगती हैं, कमजोर हो जाती है और टूट भी जाती हैं। बिसफोस्फोनेट्स इस प्रक्रिया को रोकते हैं और हड्डियों को मजबूत बनाए रखते हैं। पेमिड्रोनेट (Aredia) और जोलीड्रोनिक एसिड (Zometa) इस श्रेणी की प्रमुख दवाइयां हैं। इनके इंजेक्शन हर महीने नस में दिये जाते हैं। आजकल इन्हें दो वर्ष तक दिया जाता है। पिछले वर्षों में हुई शोध में देखा गया है कि ये उन रोगियों में भी बहुत फायदा करते हैं जिन्हें हड्डियों की कोई तकलीफ नहीं होती है। इनका एक गंभीर साइड इफेक्ट ऑस्टियो नेक्रोसिस ऑफ जॉ (ONJ) है। लेकिन यह तकलीफ बिसफोस्फोनेट्स लेने वाले 3% मरीजों में ही होती है। इसमें जबड़े का कुछ हिस्सा निर्जीव हो जाता है और दर्द, संक्रमण व फोड़ा हो जाता है जो जल्दी ठीक भी नहीं होता। जबड़े की हड्डी में भी संक्रमण हो सकता है। कोई दांत भी खराब हो सकता है। यह तकलीफ होने पर दवा बंद कर दी जाती है। 


जटिलताओं के उपचार 

ऐनीमिया 
ऐनीमिया के लिए रिकोम्बिनेंट इरेथ्रोप्रोटीन (40,000 यूनिट्स sc प्रति सप्ताह) दिया जाता है। गंभीर परिस्थिति में पेक सेल ट्रांसफ्यूजन दिया जाता है। यदि लोहे की कमी है तो आयरन के इंजेक्शन दिये जाते हैं। समय समय पर मरीज का आयरन, ट्रांसफेरिटिन और फेरिटिन चेक किया जाना चाहिये। 

हाइपरकैल्सीमिया 
के लिए डाययुरेटिक्स, पर्याप्त पानी, केल्सिटोनिन या प्रेड्निसोलोन के साथ बिसफोस्फोन्ट्स दिये जाते हैं। 
हाइपरयूरिसीमिया – यूरिक एसिड बहुत ज्यादा हो तो एलोप्यूरिनोल दिया जा सकता है। 

किडनी फेल्यर 
किडनी फेल्यर में पानी और तरल पर्याप्त लेना चाहिये। शरीर में जल की मात्रा पर्याप्त बनी रहे। यदि पेशाब की मात्रा 2 लीटर तक बनी रहे तो बेन्स जोन्स प्रोटीन्यूरिया (≥ 10 to 30 g/day) के बावजूद भी गुर्दा अपने अस्तित्व को बचा लेता है। हमें पूरी कौशिश करना चाहिये कि गुर्दें को खराब होने से बचाया जा सके। कुछ मरीजों में प्लाज्मा एक्सचेंज प्रभावशाली परिणाम देता है। क्रोनिक किडनी फेल्यर होने पर डायलीसिस करना पड़ता है। 

संक्रमण 
इन्फेक्शन कई बार कुछ दवाओं जैसे बोट्रेजोमेब की वजह से न्युटेरोपीनिया और हरपीज जोस्टर इन्फेक्शन हो जाता है। इन मरीजों को ऐसाइक्लोविर, वल्गानसाइक्लोविर या फेमसाइक्लोविर दी जाती है। 

फलानुमान 
मल्टीपल माइलोमा के रोगी 1 से 10 या अधिक वर्ष तक जी पाते हैं। औसत जीवनकाल 3 वर्ष है। इस रोग के फलानुमान ट्यूमर का दबाव और कैंसर कोशिकाओं के विभाजन की दर के आधार पर किया जाता है। सी.आर.पी. और बीटा-2 प्रोटीन के स्तर के आधार पर फलानुमान इस प्रकार है। 

 यदि दोनों प्रोटीन की मात्रा 6 mg/L से कम हो तो औसत जीवन काल 54 माह होता है। 
 यदि दोनों में से एक प्रोटीन की मात्रा 6 mg/L से कम हो तो औसत जीवन काल 27 माह होता है। 
 यदि दोनों प्रोटीन की मात्रा 6 mg/L से अधिक हो तो औसत जीवन काल 6 माह होता है। 

खराब फलानुमान के निम्न कारण चिन्हित किये गये हैं। 

 ट्यूमर मास 
 खून में कैल्शियम का स्तर बढ़ा हुआ हो 
 पेशाब में बेन्स जोन्स प्रोटीन की उपस्थिति
 किडनी में खराबी (स्टेज बी रोग – निदान के समय क्रियेटिनीन >2 mg/dL से अधिक हो) 
उपचार के आधार पर फलानुमान इस प्रकार है। 
 पारंपरिक उपचार (Conventional therapy) लेने पर औसत जीवनकाल तो 3 वर्ष है, लेकिन बिना किसी तकलीफ के जीवनकाल 2 वर्ष ही है। 
 हाई डोज कीमोथेरेपी और स्टेम सेल ट्रांसप्लांट लेने लेने वाले 50% से ज्यादा रोगी 5 साल जी लेते हैं। 

वैकल्पिक उपचार  

बुडविग का कैंसर उपचार 

जर्मनी की डॉ जॉहाना बुडविग (30 सितम्बर, 1908 - 19 मई 2003) विश्व विख्यात जीव रसायन विशेषज्ञ और चिकित्सक थी। उन्होंने भौतिक, जीवरसायन तथा भेषज विज्ञान में मास्टर्स की डिग्री हासिल की थी और प्राकृतिक-चिकित्सा विज्ञान में पी.एच.डी. भी की। तत्पश्चात वे जर्मन सरकार के खाद्य और भेषज विभाग में सर्वोच्च पद पर कार्यरत रही। वे जर्मनी व यूरोप की विख्यात वसा और तेल विशेषज्ञ मानी जाती थी। 

1923 में डॉ. ओटो वारबर्ग ने कैंसर के मुख्य कारण की खोज की, जिसके लिये उन्हें 1931 में नोबल पुरस्कार दिया गया। उन्होंने पता लगाया था कि कैंसर का मुख्य कारण कोशिकाओं में ऑक्सीजन की कमी हो जाना है। सामान्य कोशिकाएं ऑक्सीजन की उपस्थिति में ग्लूकोज के दहन द्वारा ऊर्जा पैदा करती है। जबकि कैंसर कोशिकाएं ग्लूकोज को फर्मेंट करके ऊर्जा प्राप्त करती हैं, जिससे लेक्टिक एसिड बनता है और शरीर में अम्लता बढ़ती है। वारबर्ग ने संभावना जताई थी कि सेल्स में ऑक्सीजन को आकर्षित करने के लिए सल्फरयुक्त प्रोटीन और एक अज्ञात फैट जरूरी होता है। उन्होंने कैंसर कोशिका में ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाने के लिए कई परीक्षण किये परन्तु वे असफल रहे।

1949 में बुडविग ने पहली बार फैट को पहचानने की पेपर क्रोमेटोग्राफी तकनीक विकसित की। इस तकनीक द्वारा यह स्पष्ट हो गया था कि वह अज्ञात फैट इलेक्ट्रोन युक्त अत्यंत असंतृप्त लिनोलिक ओर अल्फा लिनोलेनिक एसिड (जिनका भरपूर स्त्रोत अलसी का तेल है) है। इस खोज से कैंसर उपचार को नई दिशा मिल चुकी थी। डॉ. जॉहाना सिद्ध कर चुकी थी कि इलेक्ट्रोन युक्त, अत्यन्त असंतृप्त लिनोलेनिक और लिनोलिक एसिड कोशिकाओं में नई ऊर्जा भरते हैं, और कोशिकाओं में ऑक्सीजन को आकर्षित करते हैं। 

इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और सीधे बीमार लोगों के रक्त के नमूने लिये और उनको अलसी का तेल तथा पनीर मिली खुराक देना शुरू कर दिया। तीन महीने बाद फिर से उनके रक्त के नमूनो की जांच की। नतीजे सचमुच चैंका देने वाले थे। बुडविग द्वारा एक महान खोज हो चुकी थी। कैंसर के इलाज में सफलता की पहली पताका लहराई जा चुकी थी। 

लोगों के रक्त में फोस्फेटाइड और लाइपोप्रोटीन की मात्रा काफी बढ़ गई थी और अस्वस्थ हरे पीले पदार्थ की जगह लाल हीमोग्लोबिन ने ले ली थी। कैंसर के रोगी ऊर्जावान और स्वस्थ दिख रहे थे, उनकी गांठे छोटी हो गई थी, वे कैंसर को परास्त कर रहे थे। उन्होंने अलसी के तेल और पनीर के जादुई और आश्चर्यजनक प्रभाव दुनिया के सामने सिद्ध कर दिये थे। इस तरह 1952 में डॉ. जॉहाना ने ठंडी विधि से निकले अलसी के तेल व पनीर के मिश्रण, अपक्व जैविक आहार और अच्छी जीवनशैली के साथ कैंसर के उपचार का तरीका विकसित किया, जो बुडविग प्रोटोकोल के नाम से विख्यात हुआ।

धीरू भाई ने माइलोमा पर विजय प्राप्त की
कांदीवली, मुम्बई के निवासी श्री धीरू भाई बोहरा उम्र 89 वर्ष को 7 साल पहले हर्निया के आपरेशन के लिए हुई जांच से पता चला कि उनके पेट में प्लाजा सिस्टोमा नामक खतरनाक कैंसर की गांठ है। हर्निया के आपरेशन के साथ उनके पेट की गांठ भी निकाली गई। रेडियोथेरेपी भी दी गई लेकिन दो महीने बाद उनके कंधे में एक गांठ फिर हो गई। डाक्टरों ने उन्हें बताया कि उन्हें जो प्लाज्मा सिस्टोमा नामक कैंसर था वह मल्टीपल माइलोमा नामक कैंसर में परिवर्तित हो गया है और उन्हें कीमोथेरेपी भी दी गई। परंतु कीमोथेरेपी से उनके दिल में खराबी आ गई जिस कारण कीमोथेरेपी बंद करनी पड़ी। फिर उनके एक डॉ. मित्र ने जॉहाना के उपचार लेने की सलाह दी। जॉहाना के उपचार से उनकी बीमारी ठीक होती चली गयी। वे आज पूर्ण स्वस्थ है व फैक्टरी जाते हैं। कुछ अरसे पहले मेरी उनसे बात हुई तब वे अपनी फैक्टरी में ही काम देख रहे थे। 



3 comments:

Shri Sitaram Rasoi said...

One friend commented on this article. He said that this is a wonderful article about MM. It has latest and up to date information that too in gr8 detail. I think it is the best article written in Hindi so far on this important subject. I hope Indian patients will get benefitted by this article. I thank you very much for this work.

DR.ASHOK KUMAR said...

अलसी से कैंसर का काफी इफेक्टिव टी
ट्रीटमेंट है। अत: ज्यादा से ज्यादा लोगों को अलसी प्रयोग करनी चाहिए।

Ritika Mohnot said...

Sir, can you please elaborate on diet for Multiple Myeloma patients?

मैं गेहूं हूँ

लेखक डॉ. ओ.पी.वर्मा    मैं किसी पहचान का नहीं हूं मोहताज  मेरा नाम गेहूँ है, मैं भोजन का हूँ सरताज  अडानी, अंबानी को रखता हूँ मुट्ठी में  टा...