अलसी का एक और चमत्कार
अलसी के एक और चमत्कार से डा.मनोहर भंडारी ने विगत दिनों साक्षात्कार कराया। जबलपुर-नागपुर रोड पर पाँच किलो मीटर दूर एक जैन तीर्थ है, पिसनहारी मांडिया। यह तीन सौ फुट ऊँची एक पहाड़ी पर बना है। चार सौ सीढ़ियाँ चढ़ कर उपर पहुँचना पड़ता है। डा.भंडारी जबलपुर मेडिकल कालेज में प्राध्यापक हैं और अक्सर पिसनहारी जाते रहते हैं। वहाँ एक मुनीमजी हैं जिनका नाम प्रकाश जैन है, जिनके घुटनों में दर्द रहता था। एक दिन बोले डाक्टर साहब कोई दवा बताइए। सीढ़ियाँ चढ़ने में बड़ी तकलीफ होती है। डा.भंडारी ने उन्हें अलसी खाने की सलाह दी। मुनीमजी ने दूसरे ही दिन से अलसी का नियमित सेवन शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद जब डाक्टर भंडारी पिसनहारी मांडिया गए तो, मुनीमजी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ बताया-डाक्टर सा.आपका अलसी वाला नुस्खा तो बड़ा कारगर रहा। आपके बताए अनुसार करीब तीस ग्राम अलसी रोज पीस कर खाता हूँ। घुटनों का दर्द गायब हो चुका है। चार सौ सीढ़ियाँ रोज तीन बार चढ़ता हूँ। अब कोई कष्ट नहीं होता। पहले 1500 रुपये महीने की दवा खाने के बाद भी ज्यादा फायदा नहीं था और दो बार ऊपर मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने में भी तकलीफ होती थी।
अलसी के एक और चमत्कार से डा.मनोहर भंडारी ने विगत दिनों साक्षात्कार कराया। जबलपुर-नागपुर रोड पर पाँच किलो मीटर दूर एक जैन तीर्थ है, पिसनहारी मांडिया। यह तीन सौ फुट ऊँची एक पहाड़ी पर बना है। चार सौ सीढ़ियाँ चढ़ कर उपर पहुँचना पड़ता है। डा.भंडारी जबलपुर मेडिकल कालेज में प्राध्यापक हैं और अक्सर पिसनहारी जाते रहते हैं। वहाँ एक मुनीमजी हैं जिनका नाम प्रकाश जैन है, जिनके घुटनों में दर्द रहता था। एक दिन बोले डाक्टर साहब कोई दवा बताइए। सीढ़ियाँ चढ़ने में बड़ी तकलीफ होती है। डा.भंडारी ने उन्हें अलसी खाने की सलाह दी। मुनीमजी ने दूसरे ही दिन से अलसी का नियमित सेवन शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद जब डाक्टर भंडारी पिसनहारी मांडिया गए तो, मुनीमजी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ बताया-डाक्टर सा.आपका अलसी वाला नुस्खा तो बड़ा कारगर रहा। आपके बताए अनुसार करीब तीस ग्राम अलसी रोज पीस कर खाता हूँ। घुटनों का दर्द गायब हो चुका है। चार सौ सीढ़ियाँ रोज तीन बार चढ़ता हूँ। अब कोई कष्ट नहीं होता। पहले 1500 रुपये महीने की दवा खाने के बाद भी ज्यादा फायदा नहीं था और दो बार ऊपर मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने में भी तकलीफ होती थी।
पिसनहारी जैन तीर्थ की कथा भी बड़ी दिलचस्प है। लगभग पाँच सौ साल पुराना है यह मंदिर। एक गरीब बूढ़ी अम्मा थी, जो हाथ की चक्की में लोगों के लिए अनाज पिस कर अपना गुजर करती थी। एक बार उसे एक जैन मुनि के प्रवचन सुनने का सौभाग्य मिला। प्रवचन सुन कर वह बड़ी प्रभावित हुई। उसने दूर पहाड़ी पर एक जैन मंदिर बनाने की ठानी। अब वह पहले से ज्यादा मेहनत करती और मजदूरी के कुछ पैसे बचा कर रखती। धीरे-धीरे उसके पास काफी पैसे जमा हो गए। वह एक दिन कुल्हाड़ी लेकर पहाड़ी पर गई और वहाँ के झाड़-झंकाड़ साफ करने लगी। लोगों ने जब उसे ऐसा करते देखा तो पूछा माई तुम इस बंजर पहाड़ी पर क्या कर रही हो। माई ने अपना इरादा बताया तो अनेक लोग उसके साथ श्रमदान करने लगे। कई लोगों ने आर्थिक मदद भी की और इस तरह वहाँ मंदिर बन गया। अगर इरादे बुलंद हो तो पहाड़ों पर भी फूल खिलाए जा सकते हैं। पुराने लोग वैसे भी इरादे के पक्के और श्रमशील होते थे। बूढ़ी माँ का नाम तो इतिहास में गुम हो गया, लेकिन वह चूँकि पिसाई का कार्य करती थी, इसलिए पिसनहारी के नाम से जानी जाती थी। फिर क्या था लोगों ने इसका नाम पिसनहारी मांडिया रख दिया। कहते हैं पुराने समय में लोग अलसी को नियमित आहार के रूप में सेवन करते थे। शायद इसी वजह से इतना असाध्य श्रम कर पाते थे।
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