ग़ज़ल
आसमॉ पर मेघ काले जब से गहराने लगे
भूल – बिसरे – से फ़साने मुझको याद आने लगे
देखते ही मुझ को उठ कर बज़्म से जाने लगे
जाने क्युँ मुझ से वो अब इस दर्जा कतराने लगे
मैंने पूछा, कैसे ख़ुश रहते हैं आप इस दौर में
कुछ न बोले, मुझ को देखा और मुस्काने लगे
तुम से मिलने की मेरी बेचैनीयों ने ये किया
रो पड़े अहसास और जज़्बात घबराने लगे
तुम को देखा, ख़ुश्क आँखें अश्क़ बरसाने लगीं
रेत का सागर था दिल में खेत लहराने लगें
इक नदी सी भर गई है मेरे घर के सामने
कागज़ी नावों में बच्चे झूमने – गाने लगे
रात को युँ देर से घर लौटना अच्छा नहीं
सहमे – सहमे रास्ते मुझ को ये समझाने लगे
जो कि मिस्ले – तिफ़्ले थे कल तक वही “कमसिन” हमें
अब जहाँदारी ज़माने भर की सिखलाने लगे
कृष्णा कुमारी सी–368, मोदी हॉस्टल लाईन तलवंडीं,कोटा राज. |
|
No comments:
Post a Comment