प्राइमरी कोरोनरी एन्जियोप्लास्टी
काफी पहले फेन्टेस्टिक वोएज नाम की एक फिल्म बनी थी जिसमें एक राजनेता के मस्तिष्क की नस खून का थक्का जम जाने से अवरुद्ध हो गई थी और वह ऑपरेशन नहीं करवाना चाहता था। चिकित्सकों और वैज्ञानिकों ने उसके उपचार का तरीका कुछ इस तरह निकाला था। उन्होंने एक पनडुब्बी में लेज़र गन लिए डॉक्टर्स की टीम को बिठाया और उस पनडुब्बी को मशीन द्वारा अतिसूक्ष्म बना कर सीरिंज में भर कर नस में प्रवेश करवा दिया। डॉक्टर्स पनडुब्बी को मस्तिष्क में ले गये और लेज़र गनों से खून के थक्कों को हटा कर नस को साफ कर अवरोध दूर किया। 1964 में डॉ. चार्ल्स डोटर ने इस परिकल्पना को साकार कर एन्जियोप्लास्टी उपकरण बनाया और एक रोगी के पैर की नस में जमे खून के थक्के को साफ किया। जर्मन कार्डियोलोजिस्ट एन्ड्रियास ग्रुन्जिस ने पहली बार सफल कोरोनरी एन्जियोप्लास्टी की थी। डॉ. चार्ल्स डोटर को फादर ऑफ इन्टरवेन्शनल रेडियोलोजी कहा गया और 1977 में इन्हें 1978 में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया। इस तरह एन्जियोप्लास्टी की तकनीक विकसित हुई। आजकल विशेषज्ञ STEMI हार्ट-अटेक में एन्जियोप्लास्टी करने की सलाह देते हैं। इसे प्राइमरी एन्जियोप्लास्टी कहते हैं।
कोरोनरी एन्जियोप्लास्टी की विधि
इसे बेलून एन्जियोप्लास्टी भी कहते हैं, क्योंकि केथेटर के छोर पर पिचके बेलून को हवा से फुला कर हृदय-धमनी में जमें एथेरोमेटस प्लॉक के तोड़ दिया जाता है। इस उच्च तकनीक उपचार को अनुभवशील कार्डियोलोजिस्ट, रेडियोलोजी टेक्नीशियन, सहायक और नर्सेज द्वारा केथलेब में सम्पन्न किया जाता है। इसमें लगभग आधा-पौना घन्टे का समय लगता है। इस क्रिया में रोगी को बेहोश नहीं किया जाता है, बस सुई घुसाने की जगह सुन्न करने की सुई लगाई जाती है।
- पहले कलाई या जाँघ की धमनी में एक सुई घुसाई जाती है तथा छिद्र में एक शीथ इन्ट्रोड्यूसर लगा दी जाती है ताकि धमनी खुली रहे और रक्तस्राव भी न हो।
- अब एक लचीला, लम्बा और कोमल गाइडिंग-केथेटर अन्दर घुसाया जाता है और उसका सिरा कोरोनरी-धमनी के मुँह तक पहुँचाया जाता है। इसके सिरे से रेडियोओपेक डाई भी रक्त में छोड़ी जा सकती है ताकि एक्स-रे के पर्दे पर एथेरोमेटस प्लॉक, धमनियों तथा केथेटर की स्थिति का सही अवलोकन हो सके। एक्स-रे देख कर चिकित्सक अनुमान लगा लेता है कि कैसा तथा किस नाप का कोरोनरी गाइडवायर (निर्देश-तार) और बेलून केथेटर प्रयोग करना है। कोरोनरी-धमनी में हिपेरिन भी दिया जाता है ताकि रक्त जमे नहीं।
- एक महीन कोरोनरी गाइडवायर, जिसका अंतिम सिरा रेडियोओपेक (एक्स-रे की लिहाज़ से अपारदर्शी) होता है, गाइडिंग-केथेटर के अन्दर होता हुआ कोरोनरी-धमनी घुसाया जाता है। बाहर एक्स-रे के पर्दे पर देखते हुए वायर को अवरोध तक पहुँचा दिया जाता है। गाइडवायर के सिरे को बाहर से घुमा कर दिशानिर्देश दिये जा सकते हैं।
- गाइडवायर के अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के बाद इसके उपर एक अन्दर से पोला एन्जियोप्लास्टी केथेटर आहिस्ता से चढ़ाया जाता है, ताकि इसका पिचके बेलूल वाला सिरा धमनी के अवरुद्ध कर रहे प्लॉक से थोड़ा सा आगे तक पहुँचे। एन्जियोप्लास्टी केथेटर के सिरे पर एक पिचका हुआ बेलून होता है और इस पर विशिष्ट धातु की जाली से बना एक स्टेन्ट पहनाया जाता है। यह जालीदार स्टेन्ट सामान्य स्थिति में लचीला और पिचका रहता है परन्तु इसे फैलाने पर यह फैल कर स्थिर (लोक) हो जाता है और फैली हुई स्थिति में ही रहता है और धमनी को भी फैला कर रखता है। अब बेलून को एक निश्चित दबाव पर फुला कर प्लॉक को तोड़ कर धमनी को फैला दिया जाता है। बेलून के फूलने से उस पर चढ़ा स्टेन्ट भी फैल कर लोक हो जाता है और धमनी फैल जाती है।
- प्रारम्भ में सामान्य स्टेन्ट प्रयोग में लिये जाते थे परन्तु कुछ वर्षों से विशिष्ट दवाइयों के लेप चढ़े स्टेन्ट काम में लिये जा रहे हैं। लगाने के बाद ये दवा को धीरे-धीरे रक्त में छोड़ते रहते हैं जिससे इनके दोबारा अवरुद्ध होने की संभावना बहुत कम रहती है। स्टेन्ट पर लेप करने के लिये आजकल बायोलिमस ए-9, ज़ेट्रोलिमस, सिरोलिमस, एवरोलिमस और पेक्लिटेक्सेल प्रयोग की जाती हैं। ये बहुत मँहगे होते हैं।
- स्टेन्ट लगाने के बाद धमनी में से सारे ताम-झाम निकाल दिये जाते हैं बस शीथ रहने दी जाती है। 4-6 घंटे बाद शीथ निकाल कर धमनी को 15-20 मिनट दबा कर प्रेशर बेन्डेज कर दी जाती है। ध्यान रखा जाता है ताकि रक्तस्राव न हो। रोगी को उसी दिन या अगले दिन घर भेज दिया जाता है।
- रोगी को नियमित एस्पिरिन लेने की सलाह दी जाती है और कुछ महीनों (सामान्यतः 3-6 महीने) तक क्लापिडोग्रेल भी दी जाती है ताकि स्टेन्ट पर थक्का बनने की संभावना रहती है। कुछ समय बाद स्टेन्ट पर जैविक ऊतक की परत बन जाती है जो बिम्बाणुओं को एकत्रित नहीं करती है।
- सफल एन्जियोप्लास्टी के बाद भी 30-50% मामलों में धमनी के पुनः अवरुद्ध होने की संभावना रहती है।
इसलिए समय-समय पर जांच करते रहना चाहिये और समुचित उपचार किया जाना चाहिये।
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