जैसे ही डायन डायबिटीज शरीर पर अपनी पकड़ मजबूत कर लेती है,
उत्पाती और उधमी ग्लूकोज शरीर की नाड़ियों को नुकसान पहुँचाने लगता है। 60-70
प्रतिशत मधुमेही अपने जीवन काल में किसी न किसी प्रकार के नाड़ी-दोष का शिकार हो
ही जाते हैं। मधुमेह के कारण नाड़ियों के क्षतिग्रस्त होने को नाड़ीरोग या
डायबीटिक न्यूरोपैथी (न्यूरो=नाड़ी और पैथी=रोग) कहते हैं। यह एक गम्भीर
रोग है जो मधुमेही के शरीर पर भले देर से हमला करता है परन्तु चुपचाप और दबे पाँव करता
है, जैसे-जैसे यह अपने पर फैलाता है उसके जीवन को असहनीय कष्ट, वेदना और अपंगता से भर देता है। इस रोग के सन्दर्भ
में मैं आपको एक शेर सुनाता हूँ। (अरबी
भाषा में सुक्कर
चीनी को कहते हैं)
बीमार-ए-सुक्कर का,
हाल न पूछो दोस्तों
ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता ही गया।
रोगी के जीवन में इस रोग में होने वाले लक्षण इस बात पर
निर्भर करते हैं कि शरीर की कौन सी नाड़ियों को क्षति पहुँची है, रोगी को मधुमेह
कितने समय से है, रोगी का रक्तशर्करा नियंत्रण कैसा है, क्या वह धूम्रपान व
मदिरापान करता है या उसकी जीवनशैली कैसी है। वैसे तो हाथ-पैरों में दर्द, चुभन,
जलन तथा स्पंदन, तापमान या स्पर्श की अनुभूति न होना इस रोग के मुख्य लक्षण हैं, पर
रोगी को पाचनतंत्र, उत्सर्जन-तंत्र, प्रजनन-तंत्र, हृदय एवम् परिवहन-तंत्र आदि से
संबन्धित कोई भी लक्षण हो सकते हैं। नाड़ीरोग में कुछ रोगियों को बहुत मामूली सी तकलीफ
होती है तो कई बार लक्षण इतने प्रचण्ड और कष्टदायक होते हैं कि जीवन अपाहिज और
असंभव सा लगने लगता है।
लेकिन सबसे अच्छी बात यह है कि रक्त-शर्करा के कड़े तथा
स्थाई नियंत्रण, थोड़ी सी सतर्कता और स्वस्थ जीवनशैली द्वारा मधुमेह के इस
दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है या इसके विकास को धीमा किया जा सकता है।
आखिर ये नाड़ियाँ क्या होती हैं?
मोटे तौर पर नाड़ियों की तुलना हम बिजली की केबल्स से कर
सकते हैं। इनके मध्य में भी एक तार होता है जिसमें संदेश, आदेश या संवेदनाएं
प्रवाहित होती हैं। इसे एक्सोन कहते हैं। जिसके बाहर एक रक्षात्मक खोल होता है
जिसे माइलिन शीथ कहते हैं। ये नाड़ियाँ हमारे मस्तिष्क, सुषुम्ना (Spinal Cord) और नाड़ी-तंत्र का महत्वपूर्ण
हिस्सा होती हैं। यह तंत्र हमारे शरीर का एडमिनिस्ट्रेशन और टेलीकम्युनिकेशन विभाग
है, जो शरीर के समस्त अंगों से सामन्जस्य रखते हुए उन्हें नियंत्रित करता है, बाह्य
जगत से संवेदनाए और सूचनाएं एकत्रित करता है, विभिन्न कार्यों के संपादन हेतु माँस-पेशियों
को कार्य करने के आदेश देता है, सीखता है, सोचता है और निर्णय लेता है। सुपर
कम्प्युटर से भी ज्यादा बुद्धिमान और तेज काम करने वाला यह मल्टीटास्किंग सिस्टम
थोड़ी देर भी हैंग हो जाये या शट-डाउन हो जाये तो पूरा शरीर बेकार हो जायेगा, टूट
जायेगा और बिखर जायेगा।
नाड़ियाँ मुख्यतः तीन प्रकार की होती है।
1-
संवेदी
नाड़ियाँ (Sensory) - ये वो नाड़ियाँ होती है जो
ज्ञानेन्द्रियों और त्वचा के द्वारा बाह्य जगत से विभिन्न संवेदनाएं और सूचनाएँ केंद्रीय
संस्थान (मस्तिष्क और सुषुम्ना) तक ले जाती है।
2-
प्रेरक या
चालक नाड़ियाँ (Motor Nerves)- इन नाड़ियों के तन्तु मांसपेशियों में फैले हुए होते हैं और
जो केंद्रीय संस्थान से कार्य करने के आदेश मांसपेशियों तक ले जाती है। इन्ही से
शरीर के हर अंग और माँस-पेशियाँ कार्य करती हैं।
3-
स्वायत्त
नाड़ियाँ (Autonomic Nerves) - मनुष्य को बनाते समय ईश्वर को शायद मालूम
था कि मृत्युलोक में जाकर यह एशो-आराम करेगा, कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा,
भ्रष्टाचार फैलायेगा, प्रदूषण फैलायेगा, हरी-भरी धरा को उजाड़ कर
मरुभूमि बनायेगा, पाप करेगा, उसके बनाये नियमों (Protocol)
से छेड़छाड़ भी करेगा और शरीर के समस्त विभागों
को नियंत्रित करना इसके बूते के बाहर की बात हैं। इसलिए ईश्वर ने शरीर के कई
महत्वपूर्ण कार्यों जैसे हृदय, रेटीना, आँखों की पुतली, मूत्र विसर्जन-तंत्र,
पाचन-तंत्र, स्वेदन, श्वसन, प्रजनन आदि की पूरी कार्य-प्रणाली का नियंत्रण मनुष्य
को न देकर एक सॉफ्यवेयर बनाया और उसे एक चिप में डाल कर एक स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्थान
को दे दिया, जिसका नाम रखा गया है स्वायत्त नाड़ी तंत्र (Autonomic Nervous
System)। अब इन सारे कार्यों में मनुष्य का कोई हस्तक्षेप नहीं है। अब
ये सारे कार्य ईश्वर के बनाये हुए सॉफ्यवेयर प्रोटोकोल के अनुसार ही होते
हैं। ये स्वायत्त नाड़ियाँ दो प्रकार की
होती हैं 1- सिम्पेथेटिक नाड़ियाँ और 2- पेरासिम्पेथेटिक नाड़ियाँ।
रोगजनकता (Pathogenesis)
मधुमेह नाड़ीरोग की उत्पत्ति और रोगप्रगति में निम्न चार
कारक महत्वपूर्ण माने गये हैं।
सूक्ष्म-रक्तवाहिकीय रोग Microvascular Disease
यदि रक्त-वाहिकाएँ
स्वस्थ हों और नाड़ियों को रक्त की आपूर्ति ठीक बनी रहे तो वे अपना कार्य
सुरुचिपूर्ण ढंग से करती रहती हैं। सर्व विदित है कि मधुमेह में वाहिकाओं का
संकुचित होना पहली विकृति है। जैसे-जैसे रोग बढ़ता है विकृति बढ़ने लगती है।
सूक्ष्म-वाहिकाओं की आधारीय-झिल्ली (Basement membrane) मोटी होने
लगती है और अन्तर्कला (Endothelium) की कोशिकायें
बढ़ने लगती है, जिसके फलस्वरूप नाड़ियों को रक्त की आपूर्ति
बाधित होने लगती है। वाहिकीय-विस्तारक दवाएँ (Vasodilator) जैसे ACE इन्हिबीटर्स तथा α1-एन्टागोनिस्ट काफी हद तक राहत पहुँचाती हैं। इस तरह मधुमेह की आरंभिक
अवस्था में ही सूक्ष्म-वाहिकाएँ संकुचित होने लगती हैं और फलस्वरूप नाड़ियाँ भी
रुग्ण होने लगती हैं।
उन्नत शर्कराकृत उत्पाद (Advanced Glycation End product)
कोशिकाओं में बढ़ी हुई शर्करा प्रोटीन से क्रिया करके बंधन
स्थापित कर उन्नत-शर्करा उत्पाद बनाती है, जिससे प्रोटीन की संरचना और कार्य प्रणाली दोनों प्रभावित
होती है। ये उन्नत-शर्करा उत्पाद भी नाड़ियों को क्षतिग्रस्त करते हैं।
प्रोटीन काइनेज-सी
बढ़ी हुई रक्त-शर्करा कोशिकाओं में डायसिलग्लीसरोल का स्तर
बढ़ाती है, जो प्रोटीन काइनेज-सी को सक्रिय कर देते हैं। ये प्रोटीन काइनेज-सी भी
नाड़ियों को नुकसान पहुँचाते हैं।
पॉलीऑल पथ
इसे सोर्बिटोल-एल्डोज रिडक्टेज पथ भी कहते हैं। पॉलीऑल पथ
की भूमिका नाड़ियों, दृष्टिपटल (रेटीना) तथा वृक्क की सूक्ष्म-वाहिकाओं को क्षतिग्रस्त करने में बहुत
महत्वपूर्ण मानी गई है। ग्लूकोज बहुत ही सक्रिय, शरारती और चिपकू किस्म का तत्व है
और इसका चयापचय तथा विघटन होना ही शरीर के लिए हितकारी है। लेकिन यदि इसका स्तर
बढ़ता है, जैसा कि मधुमेह में होता है, तो यह एक वैकल्पिक पॉलीऑल पथ को सक्रिय
करता है जिससे शरीर में ग्लूटाथायोन का
स्तर घटने लगता है और विनाशकारी मुक्त-कण (Free Radicals) बनने लगते हैं। यह क्रियापथ एल्डोज -रिडक्टेज एन्जाइम पर
निर्भर है।
शरीर की अधिकांश कोशिकाओं में ग्लूकोज का प्रवेश इन्सुलिन
के कड़े नियंत्रण पर निर्भर होता है लेकिन दृष्टिपटल, वृक्क और समस्त नाडीतंत्र
इन्सुलिन के अधिकार क्षेत्र में नही आते
हैं। इसलिए ग्लूकोज इन अंगों की कोशिकाओं
में उन्मुक्त और स्वच्छंद विचरण करता रहता
है। सामान्यतः कोशिकाएँ ग्लूकोज का विघटन
कर ऊर्जा प्राप्त करती रहती हैं, लेकिन ग्लूकोज
का स्तर ज्यादा हो तो वह पॉलीऑल पथ
में प्रवेश कर जाता है और परिवर्तित होकर सोर्बिटोल बन जाता है। जब तक ग्लूकोज का स्तर सामान्य रहता है पॉलीऑल पथ सक्रिय नहीं होता है
क्योंकि ग्लूकोज का स्तर बढ़ने पर ही एल्डोज–रिडक्टेज
पॉलीऑल पथ को उत्प्रेरित कर सकता है। लेकिन
ग्लूकोज का स्तर बढ़ने पर एल्डोज–रिडक्टेज एन्जाइम पॉलीऑल पथ को सक्रिय कर देता है फलस्वरूप
सोर्बिटोल का स्तर बढ़ने लगता है और NADPH का स्तर घटने लगता
है क्योंकि इस क्रिया में NADPH ग्लूकोज को सोर्बिटोल में परिवर्तित करके स्वयं NADP+
बन जाता है। सोर्बिटोल में
कोशिका से बाहर निकलने की क्षमता नहीं होती हैं, इसलिए यह कोशिका में एकत्रित होता
रहता है और अपने रसाकर्षण से कोशिका में
बाहर से पानी खींचता है।
चूँकि NADPH का एक कार्य नाइट्रिक ऑक्साइड और ग्लूटाथायोन के निर्माण
में मदद करना भी है, इसलिए इसका स्तर घटने पर नाइट्रिक ऑक्साइड और ग्लूटाथायोन का स्तर भी
घटता है। फलस्वरूप घातक मुक्त-कण बनने
लगते हैं। यह
भी विदित रहे कि नाइट्रिक
ऑक्साइड वाहिकाओं का विस्तारण करता है। आगे चल कर इस क्रिया पथ में NAD+ सोर्बिटोल को फ्रुक्टोज
में परिवर्तित करता है और स्वयं अपघटित होकर NADH बन जाता है। NAD+ भी मुक्त कणों के
निर्माण को बाधित करता है।
सोर्बिटोल कोशिका में एक अन्य प्रोटीन मायोइनसिटोल का
प्रवेश भी बाधित करता है, जो कोशिका की
झिल्ली में स्थित Na+/K+ ATPase पम्प की सक्रियता के लिए
जरूरी होता है। यह पम्प नाड़ी-कोशिका की कार्य प्रणाली में बहुत अहम भूमिका निभाता है अतः कोशिका में सोर्बिटोल का स्तर
बढ़ने से नाड़ियों क्षति पहुँचती है।
लक्षण
नाड़ीरोग मुख्यतः
चार प्रकार का होता है। रोगी में एक या कई स्नायुरोगों के लक्षण हो सकते हैं।
सामान्यतः रोग धीरे-धीरे बढ़ता है और कई बार जब रोगी चिकित्सक के पास पहुचता है तब
तक नाड़ियां काफी क्षतिग्रस्त हो चुकी
होती है। कभी-कभी मधुमेह का निदान होने के काफी पहले ही रोगी में नाड़ीरोग के
लक्षण दिखाई देने लगते हैं। मधुमेह नाड़ीरोग के लक्षण विविध और विस्तृत होते हैं
और इस बात पर निर्भर करते हैं कि किन नाड़ियों को क्षति पहुँची है रोग किस प्रकार का है।
दूरस्थ नाड़ीरोग Peripheral neuropathy
यह सबसे व्यापक मधुमेह नाड़ीरोग
है, जो आम तौर पर लम्बी नाड़ियों को प्रभावित करता है और नाड़ियों के अंतिम छौर
सबसे पहले क्षतिग्रस्त होते हैं। यानि यह रोग सबसे पहले हाथों और पैरों में अपना
असर दिखाता है और धीरे-धीरे रोग का असर ऊपर की ओर बढ़ने लगता है, ठीक वैसे ही जैसे
हम हाथों और पैरों पर धीरे-धीरे दस्तानों
और मोजों को ऊपर खिसकाते हैं। धीरे-धीरे रोग की गम्भीरता बढ़ती जाती है और
स्थितियां बिगड़ने लगती हैं। इसके मुख्य
लक्षण निम्न हैं।
•
हाथों और
पैरों की अंगुलियों में दर्द, स्पर्श या तापमान की अनुभूति न होना या सरल शब्दों
में अंगुलियों का सुन्न हो जाना।
•
पैरों में
जलन और सिहरन होना।
•
हाथों और
पैरों तेज दर्द और चुभन होना और रात में असहनीय हो जाना।
•
चलते समय
पैरों में कमजोरी और दर्द होना, कभी-कभी रोगी
के लिए चलना भी मुश्किल हो जाना।
•
अतिसंवेदनशीलता-
हल्का सा स्पर्श भी कष्टदायक लगना जैसे सोते समय शरीर पर डली चादर से भी असहनीय
तकलीफ होना आदि।
•
पैरों में कई
गंभीर कष्ट होना जैसे संक्रमण, फोड़ा हो जाना, हड्डी या जोड़ों में दर्द होना या अपंगता
होना।
स्वायत्त नाड़ीरोग Autonomic neuropathy
स्वायत्त नाड़ीतंत्र हमारे हृदय, फेफड़े, मूत्राशय, नैत्र,
आमाशय, आंतों और जननेन्द्रियों की गतिविधियों को नियंत्रित करता है। यदि मधुमेह इन
नाड़ियों को क्षतिग्रस्त करता है और रोगी में निम्न लक्षण हो सकते है।
•
आमाशय के
शिथिल हो जाने (Gastroparesis) से जी घबराना,
उल्टी होना या भूख नहीं लगना।
•
कब्जी या
दस्त लगना या दोनों हो जाना।
•
पसीना बहुत
कम या ज्यादा आना।
•
मूत्राशय के विकार
जैसे बार बार संक्रमण होना और मूत्राशय की
असंयमता (Urinary Incontinence)
•
हाइपोग्लायसीमिया
होने पर रोगी को अहसास न हो पाना।
•
शरीर के
तापमान नियंत्रण की क्षमता कम हो जाना।
•
व्यायाम करने
में परेशानी होना।
•
विश्राम की अवस्था में भी दिल की धड़कन बढ़ जाना।
•
आँखों की
पुतली का रोशनी होने पर संकुचन और अंधेरा होने
पर विस्तारण करने की क्षमता घट जाना अर्थात उसकी संवेदनशीलता घट जाना।
•
शरीर का
रक्तचाप और हृदयगति को नियंत्रण न कर पाना, जिसके फलस्वरूप लेटा या बैठा व्यक्ति
अचानक खड़ा हो जाये तो रक्तचाप के कम हो जाने से चक्कर आना या मूर्छित हो कर गिर
पड़ना (orthostatic hypotension) ।
•
पुरूषों में स्तंभन-दोष होना और स्त्रियों में
शुष्क-योनि और लैंगिक कठिनाइयां होना।
समीपस्थ नाड़ीरोग Radiculoplexus neuropathy
दूरस्त नाड़ीरोग के विपरीत समीपस्थ नाड़ीरोग में कन्धों और
कूल्हों के आसपास की नाड़ियां रोगग्रस्त होती हैं। इसे डायबीटिक एमायोट्रोफी या
फिमोरल न्यूरोपैथी भी कहते हैं। यह रोग मधुमेह प्रकार-2 और वृद्धावस्था में ज्यादा
होता है। इस रोग का प्रभाव आम तौर पर पैरों पर ज्यादा होता है लेकिन उदर और बांहो
में भी लक्षण हो सकते हैं। वैसे तो तकलीफ
शरीर के एक तरफ होती है परन्तु कुछ रोगियों में तकलीफ दूसरी तरफ भी जा सकती हैं। इस
रोग निम्न लक्षण देखे जा सकते हैं।
•
अचानक
कूल्हों और जांघों में तेज दर्द होना।
•
जाघों की
माँस-पेशियों का कमजोर और पतला होना।
•
बैठे हुए
रोगी को खड़ा होने में दिक्कत होना।
•
बिना किसी
कारण के रोगी का वजन घटना।
•
पेट फूल
जाना।
एकल नाड़ीरोग Mononeuropathy
इस रोग का असर बांह, पैर
या चहरे की एक ही नाड़ी में होता है। यह रोग आम तौर पर वृद्धावस्था में होता है और इसकी शुरूवात अचानक बड़ें तेज दर्द के साथ
होती हैं। हांलाकि जल्दी ही दर्द कम होने लगता है और कुछ हफ्तों या महीनों में रोग स्वतः ठीक हो जाता है। इसमें निम्न लक्षण हो सकते
हैं।
•
आँखों को
किसी वस्तु या बिन्दु पर कैन्द्रित करने में कठिनाई होना, द्वि-दृष्टिता
(हर चीज दो-दो दिखाई देना) या किसी एक आँख के पीछे दर्द होना।
•
चेहरे
के एक तरफ की माँस-पेशियों में लकवा हो जाना (Facial Palsy)।
•
पैर या टांगों
में दर्द होना।
•
जांघों के आगे की तरफ दर्द होना।
•
छाती या पेट
में दर्द होना।
•
कभी-कभी नाड़ी पर दबाव पड़ने से यह रोग होता है, जैसे कार्पल टनल सिन्ड्रोम जिसके मुख्य
लक्षण हैं हाथों और अंगुलियों का सुन्न हो
जाना, हाथ में कमजोरी आना आदि।
दुष्प्रभाव
•
अंग-उच्छेदन
(Limb Amputation) - नाड़ियाँ
क्षतिग्रस्त होने से पैरों में चुभन और दर्द की अनुभूति बहुत क्षीण हो जाती है,
जिससे छोटी-मोटी चोटों का तो पता ही नहीं चलता है और पैर में संक्रमण और फोड़े हो
जाते हैं। दूसरी ओर मधुमेह के प्रभाव से पैरों का रक्तप्रवाह कम होने लगता है,
जिससे धाव लम्बे समय तक ठीक नहीं होते हैं और संक्रमण हड्डियों को भी अपनी गिरफ्त
में ले लेता है और पैर सड़ कर काले पड़ जाते (गेन्गरीन) हैं। रोगी अपना पैर कटवा
कर ही लापरवाही की सजा भुगतता है।
•
चारकोट
अस्थि-संध (Charcot joint) – यह दुष्प्रभाव
आमतौर पर पैरों के जोड़ों को जकड़ता है। नाड़ियाँ क्षतिग्रस्त होने से जोड़ में
दर्द, सूजन और स्थिरता आ जाती है। अन्त में जोड़ बेडौल और विकृत हो जाता है।
•
मूत्रपथ
संक्रमण और मूत्र-असंयमता (Urinary incontinence) – मूत्राशय
की पेशियों को नियंत्रित करने वाली नाड़ियाँ क्षतिग्रस्त होने पर मूत्राशय पूरी
तरह खाली नहीं हो पाता है, जिससे मूत्राशय और वृक्क में कीटाणु अपना बसेरा बना
लेते हैं अर्थात मूत्रपथ में संक्रमण हो जाता है। नाड़ियाँ खराब होने से मूत्राशय
को यह भी पता नहीं चल पाता है कि वह मूत्र से भर चुका है और उसे मूत्रत्याग कर
लेना चाहिये। फलस्वरूप कभी भी अनायास
मूत्र निकल जाता है। इसे मूत्र-असंयमता
कहते हैं।
• हाइपोग्लाइसीमिया
की अनुभूति न होना – जब रक्तशर्करा बहुत कम हो जाती है तो शरीर चक्कर, घबराहट,
ठंडा पसीना आना, दिल की धड़कन बढ़ जाना आदि लक्षणों द्वारा मस्तिष्क से आग्रह करता
है कि शरीर में शक्कर के भंडार खाली होने के कगार पर हैं आप जल्दी से शुगर
इम्पोर्ट कीजिये। परन्तु स्वायत्त नाड़ीरोग होने पर रोगी को इन लक्षणों की अनुभूति
नहीं हो पाती और शक्कर का शिपमेन्ट समय पर नहीं पहुँच पाता है अर्थात कई बार इस
अत्यंत गंभीर और घातक स्थिति का समय रहते उपचार नहीं हो पाता है।
• अल्प-रक्तचाप
– रक्तचाप को नियंत्रित करने वाली नाड़ियाँ खराब होने के कारण रक्तचाप नियंत्रण
अव्यवस्थित हो जाता है, जैसे लेटा या बैठा
व्यक्ति अचानक खड़ा हो और रक्तचाप एकदम कम हो जाये।
•
पाचन-तंत्र
सम्बंधी विकार – पाचन-तंत्र की स्वायत्त-नाड़ियाँ रुग्ण होने पर कब्जी, दस्त,
उबकाई, उलटी, पेट फूल जाना, भूख न लगना आदि कष्ट हो सकते हैं। आमाशय का एक गम्भीर
विकार जठरपात (gastroparesis) भी उल्लेखनीय है जिसमें आमाशय शिथिल हो जाता है
तथा उसमें भोजन का प्रवाह बहुत धीमा हो जाता है, जिसके कारण उबकाई या उलटी हो सकती
है और रक्त शर्करा स्तर भी प्रभावित हो सकता है।
• स्वेदन-दोष -
जब स्वेदन ग्रंथियां (Sweat Glands) ठीक प्रकार से
कार्य नहीं करें तो शरीर का तापमान नियंत्रण बिगड़ जाता है। स्वायत्त नाड़ीरोग में स्वेदन बाधित होने (Anhidrosis) से जानलेवा स्थिति बन सकती है। इसमें कभी-कभी रात्रि में
अत्यधिक पसीना भी आ सकता है।
•
सामाजिक
अलगाव – दर्द, विकलांगता और शरमिन्दगी की वजह से रोगी अपने मित्रों और परिजनों से
दूर हो जाता है और एकाकीपन तथा अवसाद रूपी कुए में धंसता चला जाता है।
निदान
प्रायः मधुमेह नाड़ीरोग का
निदान रोगी द्वारा बतलाये गये लक्षणों, चिकित्सकीय इतिहास और रोगी के भौतिक-परीक्षण
के आधार पर किया जाता है। अपने परीक्षण में चिकित्सक टेन्डन रिफ्लेक्स देखता है,
माँस-पेशियों की शक्ति तथा तनाव को अनुभव करता है और शरीर के विभिन्न हिस्सों में
स्पर्श, तापमान तथा स्पन्दन के प्रति संवेदनशीलता का आंकलन करता है। इनके अलावा वह निम्न परीक्षण भी कर सकता
है।
•
फिलामेन्ट
टेस्ट- इसमें नायलोन के एक मुलायम रेशे जिसे फिलामेन्ट
कहते हैं, से हाथों और पैरों में स्पर्श के प्रति संवेदना को परखा जाता है।
•
नाड़ी कंडक्शन
टेस्ट - इस परीक्षण से यह मालूम किया जाता है आपकी
नाड़ियों में विद्युत संदेशों का प्रवाह कितनी शीघ्रता से होता है। इस टेस्ट को कार्पल
टनल सिन्ड्रोम में अक्सर किया जाता है।
•
इलेक्ट्रोमायोग्राफी
– इस परीक्षण में माँस-पेशियों की विद्युत
गतिविधियों को एक रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।
•
स्वायत्त
नाड़ी परीक्षण - स्वायत्त नाड़ीरोग के आंकलन के लिए चिकित्सक कई
परीक्षण करता है जैसे वह कई स्थितियों में आपका रक्तचाप लेता है, शरीर में स्वेदन
(पसीना) की स्थिति का आंकलन करता है आदि आदि।
उपचार
मधुमेह नाड़ीरोग का उपचार
करते समय निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखा
जाता है।
•
नाड़ीरोग के
विकास को रोकना या बाधित करना।
•
दर्द का
निवारण करना।
•
दुष्प्रभाव
प्रबन्धन और पुनर्वास।
रक्तशर्करा नियंत्रण
रक्तशर्करा का कड़ा और
स्थाई नियंत्रण रखने से इस रोग के विकास को रोका जा सकता है। यदि आप इस रोग की
चपेट में आ चुकें हैं और आप कुछ कष्ट झेल रहे हैं तो वे भी ठीक होने लगेंगे।
नाड़ियों की क्षति को रोकने के लिए निम्न बाँतों का ध्यान रखना आवश्यक है।
•
चिकित्सक के
दिशा-निर्देशों की ईमानदारी से पालना करें।
•
अपना रक्तचाप
पूर्णतः नियंत्रित रखें।
•
स्वस्थ आहार
लें।
•
शारीरिक
व्यायाम नियमित करें।
•
अपना वजन सही
रखें।
•
धूम्रपान
छोड़ दें और बतलाई गई मात्रा से ज्यादा मदिरा-सेवन नहीं करें।
दर्द निवारण
इस रोग में दर्द का उपचार करना सबसे कठिन चुनौती है। इसके
लिए कई दवाइयाँ प्रयोग में ली जाती हैं लेकिन वे हर रोगी में काम नहीं करती हैं और
ज्यादातर दवाइयों के पार्श्वप्रभाव रोगी के लिए कष्यदायक होते हैं। लेकिन चिकित्सक
दवाओं का चयन बड़े विवेक से करता है। दर्द निवारण के लिए आजकल कई प्रभावशाली
वैकल्पिक उपचार भी उपलब्ध हैं जैसे एक्युपंचर,
केप्सेसिन जैल (जो मिर्च के सत्त से तैयार की जाती है) , अल्फा-लाइपोइक
एसिड, ट्राँसक्यूटेनियस इलेक्ट्रिकल नर्व स्टिमुलेशन (TENS) आदि।
चिकित्सक इनकी भी मदद लेता है।
सामान्यतः दर्द के लिए निम्न उपचार प्रयोग किये जाते हैं।
ट्राँसक्यूटेनियस इलेक्ट्रिकल नर्व स्टिमुलेशन (TENS) में कुछ
छोटे इलेक्ट्रोड्स को त्वचा पर लगा कर विशिष्ट नाड़ीपथ में क्षीण विद्युत आवेश
प्रवाहित किया जाता है। जिससे दर्द की संवेदना मस्तिष्क तक नहीं पहुँच पाती है। यह
सुरक्षित और दर्दरहित उपचार है। लेकिन यह हर रोगी में फायदा नहीं करता है। इसे
अन्य उपचार के साथ दिया जा सकता है।
अपस्माररोधी औषधियाँ या
एंटीसीज़्यूर औषधियाँ
मधुमेह नाड़ीरोग के उपचार
के लिए अपस्माररोधी औषधियाँ जैसे प्रिगाबालिन और गाबापेन्टिन आजकल चिकित्सकों की
पहली पसन्द है। प्रभाव और सुरक्षा की दृष्टि से ये त्रिचक्रीय अवसादरोधी दवाओं से
बेहतर हैं। इनका मुख्य पार्ष्वप्रभाव नींद आना है, जो हमेशा ही बना रहता है और कुछ
रोगियों का वजन भी बढ़ जाता है। फिनायटोइन
सोडियम और कार्बेमेजेपिन भी अच्छी दवा है पर
मधुमेह नाड़ीरोग के उपचार के लिए ज्यादा
सुरक्षित नहीं मानी गयी है। टोपीरामेट भी प्रभावशाली और सुरक्षित है। इसके कुछ
अच्छे पार्ष्वप्रभाव जैसे भूख न लगना और वजन कम होना हैं। परन्तु
मधुमेह नाड़ीरोग के उपचार के लिए इस पर ज्यादा शोध नहीं हुआ है।
अवसादरोधी औषधियाँ
त्रिचक्रीय अवसादरोधी
दवाएं जैसे इमिप्रामिन, एमिट्रिप्टीलिन,
डेसिप्रामिन और नोरट्रिप्टीलिन मधुमेह नाड़ीरोग के उपचार के लिए प्रयोग की
जाती हैं। लेकिन इनके कई पार्ष्वप्रभाव हैं। इनके सबसे उल्लेखनीय और चिंताजनक
दुष्प्रभाव हृदय पर पड़ते है, यहाँ तक कि
कभी-कभी तो रोगी को जानलेवा एरिद्मिया भी हो सकता है। लेकिन इन्हें कम मात्रा में
लिया जाये तो पार्ष्वप्रभाव बहुत कम होते हैं। एमिट्रिप्टीलिन सबसे ज्यादा प्रयोग
की जाती है। पर डेसिप्रामिन और नोरट्रिप्टीलिन के प्रयोग से पार्ष्वप्रभाव
अपेक्षाकृत कम होते हैं।
नई SSNRI अवसादरोधी दवाएं जैसे ड्युलोक्सेटीन
और वेन्लाफेक्सीन
भी मधुमेह नाड़ीरोग के उपचार के लिए अच्छा विकल्प
मानी जा रही हैं। ये सीरोटोनिन और एपिनेफ्रीन दोनों नाड़ी-सन्देशवाहकों पर कार्य
करती हैं। प्रायः वेन्लाफेक्सीन ज्यादा प्रयोग में ली जा रही है।
इनके पार्ष्वप्रभाव कम होते हैं।
अन्य उपचार
जाइलोकेन जो एक सुन्न करने की दवा है त्वचा पर चिपकाने वाले
चकत्ते या पेच के रूप में भी मिलती है। इसके कोई
खास दुष्प्रभाव भी नहीं है और ये त्वचा को सुन्न करके दर्द में राहत दिलाती
हैं। ओपिऑइड-जनित दर्द निवारक दवाएं जैसे ट्रामाडोल, ऑक्सीकोडोन आदि भी छोटी अवधि
के लिए खूब लिखी जा रही हैं। लेकिन इनके दुष्प्रभाव देखते हुए इन्हें लम्बे समय तक
देना उचित नहीं माना गया है।
अल्फा-लाइपोइक एसिड (जो एक महान एन्टीऑक्सिडेन्ट भी है),
एसिटाइल-एल-कार्निटीन और मिथाइलकोबालामिन (जो विटामिन बी-12
का एक प्रतिरुप है) खूब लिखे जाते है और बहुत सुरक्षित तथा असरदायक भी
हैं।
कुछ नई औषधियाँ जैसे सी-पेप्टाइड, रुबोक्सिस्टेटॉरिन (protein kinase C beta-inhibitor), बेनफोटिएमिन (यह सुरक्षित है,
असरदार है और जर्मनी में प्रयोग भी की जाती है) आदि भी काफी चर्चा में है परन्तु वे अभी शोध की पतली
गलियों से बाहर नहीं आई हैं।
दुष्प्रभाव प्रबन्धन और
पुनर्वास
मूत्रपथ सम्बंधी समस्याएं
1- एन्टिस्पाज्मोडिक दवाएं
यदि मूत्रपथ में जलन या दर्द हो। 2-
व्यवहार-चिकित्सा - जैसे नियमपूर्वक समय पर मूत्रविसर्जन करना और योनि में विशिष्ट प्रकार की पेसरीज/रिंग्स आदि रखने से मूत्र-असंयमता (Incontinence
of urine) में फायदा होता है। अमूमन कई उपचार एक साथ करने से अच्छा लाभ मिलता
है।
पाचनतंत्र सम्बंधी
समस्याएं
पाचन सम्बंधी विकार जैसे जठरवात
(Gastroparesis) के लिए दिन में कई
बार पर थोड़ा-थोड़ा आहार लेने, भोजन में वसा व रेशों की मात्रा कम करने और तरल
भोजन जैसे सूप, ज्यूस आदि ज्यादा लेने से बहुत राहत मिलती है। दस्त, उबकाई और उलटी
में समुचित दवा और हल्का आहार लेने से तकलीफ ठीक हो जाती है।
ऑर्थोस्टेटिक अल्प-रक्तचाप
मदिरात्याग, खूब पानी
पीने, धीरे-धीरे खड़े होने व धीरे-धीरे चलने, दवाइयाँ आदि से ऑर्थोस्टेटिक अल्प-रक्तचाप में बहुत मदद मिलती है।
लैंगिक-विकार
स्तंभन-दोष में सिलडेनाफिल,
टाडालाफिल और वरडेनाफिल दी जाती हैं। यदि औषधियाँ काम न करें तो वेक्युम पंप,
कृत्रिम लिंग-प्रत्यारोपण आदि विकल्प ही बचते हैं। शुष्क योनि के उपचार में योनि-स्नेहन
क्रीम (Lubricant
cream) प्रयोग की
जाती है।
श्री कृष्ण जन्माष्ठमी पर्व पर आप सभी को हार्दिक अभिनन्दन और इस लेख को भेंट के रूप में स्वीकार करें।
Dr. O.P.Verma
M.B.B.S.,M.R.S.H.(London)
President,
Flax Awareness Society
7-B-43,
Mahaveer Nagar III, Kota (Raj.)
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