Tuesday, November 24, 2020

मैं गेहूं हूँ

लेखक डॉ. ओ.पी.वर्मा 
 
मैं किसी पहचान का नहीं हूं मोहताज 
मेरा नाम गेहूँ है, मैं भोजन का हूँ सरताज 
अडानी, अंबानी को रखता हूँ मुट्ठी में 
टाटा, बिरला दौड़े आते हैं इक चिट्ठी में 
आधी दुनिया का मैं ही मात्र निवाला हूँ 
रागी, अरहर, मूंग, मसूर का घरवाला हूँ 
क्या बाजरा, क्या चावल व मक्का क्या रागी 
चने, मूंग, ज्वार, क्या जौ, मैं सब पर हूँ भारी 
घी में तलो, चाशनी में मिला दो, तो जलेबी हूँ 
गुलाब जामुन हूँ, लड्डू हूँ, सूडान का बसबोसा हूँ 
पेशावर की नान, मिलानो का पीज्जा हूँ 
मुंबई का रगड़ा पाव, काहिरा का ख़ुबजा हूँ 
पेस्ट्री हूँ, कुकी, केक, ब्रेड और मैं ही पाव हूँ 
किसी से भी पूछ लो, पूरी दुनिया का नवाब हूँ 
भले सेहत की दृष्टि से, विटामिन मिनरल में जीरो हूँ 
पर बेकरी और हलवाइयों के लिए तो हीरो हूँ 
जनेटिकली मोडीफाइड हूँ, खलनायक हूँ, गोरा हूँ 
लजीज हूँ और पूरी बिरादरी का अजीज हूँ 
विटामिन को अलग बेचूँ फाइबर दूं पेटसफा को 
दे दूँ बचा हुआ कचरा मॉल के मालिकों को 
हार्ट को ब्लॉक कर दूँ, डायबिटीज को कर दूँ स्टार्ट 
आलिया भट्ट को फुलाकर भारती बना दूँ स्मार्ट 
जोड़ों को जाम कर दूँ, डिप्रेशन की भी कर दूं शुरूआत 
चुटकियों में लोगों का पेट खराब कर दूँ रातों रात 
गरीब की सेहत को पल भर में बदहाल कर दूँ  
अच्छे अच्छों को दो मिनट में बीमार कर दूँ 
चाहे रोम हो या पेरिस, मेरा हर जगह बजता है डंका 
 दिल्ली हो, कराची हो, लंदन हो या ढाका 
 लोगों की सेहत पर भी डाल देता हूँ डाका 
 मुझसे डरते हैं सारे जग के ताऊ और काका

Tuesday, December 17, 2019

अल्फा लिनोलेनिक एसिड (ALA) की क्वांटम साइंस

अल्फा लिनोलेनिक एसिड (ALA) की क्वांटम साइंस 


  • यह एक ओमेगा-3 फैट है क्योंकि इसमें पहला डबल बांड ओमेगा कार्बन से तीसरे कार्बन के बाद बना है
  • जहां भी चेन में डबल बांड बनता है चेन कमजोर पड़ जाती है, इसलिए मुड़ जाती है
  • अल्फा लिनोलेनिक एसिड (ALA) की क्वांटम साइंस
    इस मोड़ में डिलोकेलाइज्ड इलेक्ट्रोन्स इकट्ठे हो जाते हैं। हल्के होने के कारण ये इलेक्ट्रोन्स ऊपर उठकर बादल की तरह तैरते हुए दिखाई दिए इसलिए बडविग ने इन्हें इलेक्ट्रोन्स क्लाउड या पाई- इलेक्ट्रोन्स की संज्ञा दी है। बडविग ने पेपरक्रोमेटोग्राफी से यह सब स्पष्ट देखा
  • जीवन ऊर्जा से भरपूर उपचारक इलेक्ट्रोन्स ही हमारी जीवन शक्ति है
  • ये इलेक्ट्रोन्स हमें ऊर्जावान, बलवान, बुद्धिमान, निरोगी और चिरंजीवी बनाते हैं
  • ये इलेक्ट्रोन्स ही ऑक्सीजन को कोशिका में आकर्षित करते हैं
  • ये इलेक्ट्रोन्स ही कैंसर को हील करते हैं
  • बडविग ने इन्हें सबसे बड़ा अमरत्व घटक माना है
  • कैंसर उपचार तो इस विज्ञान का ट्रेलर मात्र है पिक्चर तो अभी बाकी है दोस्तों
  • बडविग ने हमारे आहार का सबसे अहम तत्व फैट्स को माना है और कहा है कि प्रोटीन (अर्थात मैं पहला हूँ) नाम फैट्स को दिया जाना चाहिए था
  • हमारा दुर्भाग्य है कि इस विज्ञान को न कहीं पढ़ाया जाता है और न बडविग के बाद इस पर कोई रिसर्च हुई है
  • यदि इस विज्ञान पर आगे रिसर्च होती तो हम जीवन के अनेक रहस्यों जैसे टेलीपेथी, हिप्नोटिज्म, एस्ट्रोलोजी आदि से पर्दा उठा सकते थे अनेक रोगों का उपचार संभव हो सकता था। मैं आज के वैज्ञानिकों को आव्हान करता हूँ कि इस विषय पर रिसर्च शुरू करें

Sunday, December 8, 2019

कैंसर की जंग में मददगार जर्मन डॉक्टर बडविग की चिकित्सा पद्धति

कैंसर की जंग में मददगार जर्मन डॉक्टर बडविग की चिकित्सा पद्धति
(डॉ. आशा मिश्रा उपाध्याय)


          नयी दिल्ली 05 दिसंबर (वार्ता) कैंसर समेत 50 से अधिक गंभीर बीमारियों के इलाज में सफलता का परचम लहराने वाली जर्मनी की डॉ. जोहाना बडविग ने अपनी प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में कीमोथेरेपी और रेडिएशन को शामिल करने से इंकार कर दिया था, जिसके कारण सात बार नॉमिनेट होने के बावजूद उन्हें नोबेल पुरस्कार से वंचित रखा गया, पर आज उनकी चिकित्सा पद्धति से विश्वभर के कैंसर रोगी नया जीवन प्राप्त कर रहे हैं। 

      स्पेन के मलागा स्थित ‘बडविग सेन्टर’ नेचुरल इंटीग्रेटिड ट्रीटमेंट कैंसर सेंटर है, जो डॉ. बडविग की मूल चिकित्सा पद्धति पर काम करता है। केन्द्र की प्रबंधक एवं प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञ कैथी जेनकिंस ने ‘यूनीवार्ता’ से विशेष बातचीत में दावा किया कि कैंसर समेत कई गंभीर बीमारियों से जंग में बडविग चिकित्सा पद्धति सफलतम है।

       पिछले 70 सालों में इस चिकित्सा पद्धति से कई लोगों के जीवन में आशा की किरण नहीं बल्कि ‘जीवन का सूरज’ चमक रहा है, लेकिन अफसोस की बात है कि विश्व की बड़ी आबादी बडविग प्रोटोकॉल से अनजान है। विश्वभर में कैंसर के मामले बढ़ते जा रहे हैं और इसकी चपेट में आने से हर वर्ष लाखों लोगों की दर्दनाक मौत हो रही है। आज कम उम्र के लोगों में ब्रेन कैंसर के मामले बढ़ रहे हैं। आशंका है कि मोबाइल फोन का उपयोग बढ़ जाने से ऐसा हो रहा है। सेल फोन के प्रयोग में आवश्यक हिदायत बरतना अनिवार्य है।”      

Dr. Otto Warburg
       जर्मनी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक ओटो एच वारबर्ग ने वर्ष 1923 में कैंसर के मूल कारण की खोज कर ली थी। उन्होंने अपने प्रयोगों से सिद्ध कर दिया था कि सेल्स में ऑक्सीजन की कमी के कारण वे फर्मेन्टेशन की प्रक्रिया से श्वसन क्रिया करने लगते हैं और वे कैंसर सेल्स में परिवर्तित हो जाते हैं। फर्मेन्टेशन प्रक्रिया में एक खराब लेक्टिक एसिड बनता है, जिससे कैंसर में शरीर का पीएच एसिडिक हो जाता है। इस खोज के लिए उन्हें वर्ष 1931 में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था। डॉ. वारबर्ग ने संभावना जतायी थी कि सेल्स में ऑक्सीजन को आकर्षित करने के लिए सल्फरयुक्त प्रोटीन और एक अज्ञात फैट जरूरी होता है परन्तु वह इस फैट को पहचानने में असफल रहे।
       डॉ. बडविग ने उनके इस कार्य को आगे बढ़ाया। वर्ष 1951 में डॉ़ बडविग ने पहली बार लाइव टिश्यू में फैट्स को पहचानने की पेपर क्रोमेटोग्राफी तकनीक विकसित की थी। इससे सिद्ध हुआ कि ओमेगा-3 फैट किस प्रकार विभिन्न बीमारियों से बचाते हैं, स्वस्थ जीवन के लिए कितने आवश्यक हैं और ट्रांसफैट से भरपूर हाइड्रोजिनेटेड फैट तथा मार्जरीन जानलेवा हैं। इस खोज से यह भी स्पष्ट हुआ कि सेल्स में ऑक्सीजन को आकर्षित करने वाला वह रहस्यमय एवं अज्ञात फैट अलसी के तेल में पाया जाने वाला अल्फा-लिनोलेनिक एसिड है, जिसको डॉ. वारबर्ग और कई वैज्ञानिक दशकों से तलाश रहे थे। वर्षों के शोध के बाद डॉ. बडविग ने अलसी के तेल, पनीर, जैविक फलों और सब्जियों के जूस, व्यायाम, सन बाथ आदि को शामिल करके कैंसर का अपना उपचार विकसित किया। 
Dr. Johanna Budwig
      डॉ. बडविग ने 24 अगस्त 2000 में स्पेन के डॉ. लोयड जेनकिंस ने वर्ष 2003 में इस केन्द्र की स्थापना की थी 
और उसके बाद से बड़ी संख्या में लोग इससे लाभांवित हो रहे हैं। जर्मनी में होलिस्टिक आँकोलॉजिस्ट लोथर हरनाइसे अपने सहयोगी क्लॉस पर्टल के साथ मिलकर 2003 से बडविग केन्द्र को सफलतापूर्वक चला रहे हैं।
      डॉ. बडविग 1949 में जर्मन के मुंस्टर शहर की ड्रग्स फैट्स के रसायन अनुसंधान की प्रमुख बनी थी। इस दौरान उन्होंने कैंसर पर काफी अनुसंधान किये और कैंसर के रोगियों के खून में प्लेटलेट अग्रिगेशन और कुछ हरापन पाया। उन्होंने इसकी एक वजह खून में ऑक्सीजन की कमी को माना। उन्होंने अनुसंधान के नतीजों को इंसानों पर आजमाया। इसके लिए वह अस्पतालों से कैंसर के ऐसे मरीजों अपनी क्लीनिक पर लेकर आती थी जिन्हें डॉक्टरों ने कुछ माह, कुछ दिन और कुछ पलों का जीवन दिया था। उन्होंने अपनी एक पुस्तक में लिखा है कि अपनी चिकित्सा पद्धति से उन्होंने कैंसर के अंतिम चरण के मरीजों में मात्र तीन माह के अंदर जीवन का नया सवेरा पाया।
        कैथी ने एडमिन ऐट बडविगसेन्टर डॉट कॉम पर मेल भेजकर स्पेन के बडविग केन्द्र और चिकित्सा पद्धति की महत्वपूर्ण जानकारी हासिल करने की सलाह देते हुए कहा, “इस चिकित्सा पद्धति में खानपान की कुछ विशेष वस्तुओं को प्रतिबंधित करने, फ्लैक्सीड्स ऑयल (अलसी का तेल) तथा कॉटेज चीज़ समेत कई प्राकृतिक आहार और सूर्य स्नान, योग, ध्यान, आदि कई नायाब प्राकृतिक तरीकों से कैंसर तथा अन्य गंभीर रोगों से ग्रस्त लोगों का इलाज किया जाता है। सभी प्रकार के कैंसर के चौथे और अंतिम चरण के सैकड़ों मरीजों के ईमेल केन्द्र को लगातार प्राप्त होते हैं। इस पद्धति से इलाज की सूची बहुत लंबी और वैज्ञानिक है। इसे विस्तार से पढ़कर ही समझा जा सकता है।”       
Dr. Asha Mishra Upadhyay
     उन्होंने कहा, “अमेरिका की किंडली सैंड्रा ने ईमेल भेजकर अपनी नयी जिन्दगी के लिए डॉ. बडविग और हमारे केन्द्र को धन्यवाद देते हुए कहा कि वह लिखते समय अपने आंसुओं पर नियंत्रण नहीं पा रही हैं और वह चाहती हैं कि जिस तरह उन्होंने कैंसर को मात दी, अन्य लोग भी इस पर विजय प्राप्त करें। वह चाहती हैं कि पूरी दुनिया बडविग चिकित्सा पद्धति से वाकिफ हो सकें। सैंड्रा को फरवरी 2016 में चौथे चरण के ब्रेस्ट कैंसर और बोन मेटास्टेसिस का पता चला था। संयोग से वह बिडविग प्रोटोकॉल के बारे में जानती थीं और इसके बारे में ब्लॉग भी लिखती थीं। वह तुरंत स्पेन पहुंची और अपना उपचार शुरु किया। उनका 12 अप्रैल 2017 में कैट स्कैन हुआ जिसकी रिपोर्ट देखकर अमेरिका के उनके चिकित्सकों ने कहा कि उनकी हड्डियों में कोई बीमारी नहीं है और ब्रेस्ट सेल्स भी सक्रिय नहीं हैं। उन्होंने नियमित जांच के लिए सैंड्रा को छह माह में बुलाया। इस बार की कैट स्कैन की जांच में डॉक्टरों ने कहा कि थेरेपी काम कर रही है, हालांकि उन्हें मालूम नहीं था कि वह कौन सी थेरेपी ले रही थीं।” 
       उन्होंने कहा कि जिस चिकित्सा पद्धति को डॉ. बडविग ने शुरु की थी और उसके उपचार में जिन तरीकों को अपनाया था उसकी नकल की जा रही है लेकिन पद्धति को पूरी तरह से नहीं अपनाये जाने से वांछित लाभ नहीं होता है। कैंसर के बढ़ते मामले पर चिन्ता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, “मैं चाहती हूं कि जिस तरह सैंड्रा जैसे कई लोगों ने इस चिकित्सा पद्धति की वजह से नया जीवन प्राप्त किया, उसी तरह जिन्दगी की उम्मीद खो चुके लोग बडविग प्रोटोकॉल के ‘सूरज’ से अपने जीवन में उजाला भरें और भरपूर जीयें।”   
Dr. O.P.Verma
       राजस्थान में कोटा के बडविग केन्द्र के संस्थापक डॉ. ओम प्रकाश वर्मा पिछले करीब 10 साल से बडविग चिकित्सा पद्धति से इलाज कर रहे हैं। सभी प्रकार के कैंसरों के अंतिम चरण के करीब पांच सौ रोगियों का सफल इलाज करने का दावा करते हुए डॉ़ वर्मा ने कहा, ‘‘यह चिकित्सा प्रणाली सफल होने के साथ-साथ कम खर्चीली भी है। कई स्तर की जांच के बाद रोगी का इलाज शुरु किया जाता है। परिजनों को इलाज की पूरी जानकारी और चिकित्सा उपयोग में लायी जाने वाली सामग्रियों के साथ एक ही दिन में ही घर भेज दिया जाता है। समय-समय पर संपर्क करके रोगी की जानकारी ली जाती है और चिकित्सा सामग्री मुहैया करायी जाती है।”
       उन्होंने कैंसर से बचाव के लिए आवश्यक सुझाव देते हुए कहा, “एक से दो टेबलस्पून फ्लैक्स सीड्स ऑयल और करीब 25 ग्राम फ्लेक्स सीड्स का नियमित सेवन करना चाहिए। बाजार में मिलने वाले सभी खाद्य पदार्थ ट्रांस फैट्स (वनस्पति और रिफाइंड तेल) से बने होते हैं और से कैंसर के प्रमुख कारकों में से एक हैं, इनसे बचना चाहिए। जंक फूड और बाजार में प्रचलित पेय पदार्थ तो जहर के समान हैं। मोबाइल फोन, माइक्रोवेव ओवन आदि से निकले वाले खतरनाक इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक रेडिएशन को वैज्ञानिकों ने कैंसर की जननी का नाम दिया है।” मोबाइल फोन के अंधाधुंध उपयोग के कारण बढ़ते ब्रेन कैंसर की गंभीर स्थिति की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा,“ जहां तक हो सके मोबाइल फोन पर लंबी-लंबी बातें नहीं करनी चाहिए। बेहतर होगा कि हम अपने घर यानी लैंड लाइन की ओर लौटें। माइक्रोवेव ओवन को टाटा बाय-बाय करने में समझदारी है। अगर हम डॉ. बडविग के सिद्धांतो पर चले तो हमें विश्व में एक भी कैंसर अस्पताल की जरुरत नहीं होगी। डॉ. वर्मा ने कहा है कि हमारे सेल्स में पर्याप्त ऑक्सीजन पहुंच रही है तो कैंसर की बीमारी हमारे शरीर में सेंध नहीं लगा सकती। सेल्स में ऑक्सीजन का प्रवाह उचित तरीक से पहुंचाने में अलसी और अलसी का तेल बेहद कारगर है।” 
आशा और ओम 

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Wednesday, July 3, 2019

"यह रागी हुई अभागी क्यों?"


यह 'रागी' हुई अभागी क्यों?

चावल की किस्मत जागी क्यों?
जो 'ज्वार' जमी जन-मानस में,
गेहूँ के डर से भागी क्यों?

यूँ होता श्वेत 'झंगोरा' है।
यह धान सरीखा गोरा है।
पर यह भी हारा गेहूँ से,
जिसका हर कहीं ढिंढ़ोरा है!

जाने कितने थे अन्न यहाँ?
एक-दूजे से प्रसन्न यहाँ।
जब आया दौर सफेदी का,
हो गए मगर सब खिन्न यहाँ।

अब कहाँ वो 'कोदो'-'कुटकी' है?
'साँवाँ' की काया भटकी है।
संन्यासी हुआ 'बाजरा' अब,
गुम हुई 'काँगणी' छुटकी है।

अब जिसका रंग सुनहरा है।
सब तरफ उन्हीं का पहरा है।
अब कौन सुने मटमैलों की,
गेहूँ का साया गहरा है।

यह देता सबसे कम पोषण।
और करता है ज्यादा शोषण।
तोहफे में दिए रसायन अर
माटी-पानी का अवशोषण।

यह गेहूँ धनिया-सेठ बना।
उपभोगी मोटा पेट बना।
जो हज़म नहीं कर पाए हैं,
उनकी चमड़ी का फेट बना।

अब आएँगे दिन 'रागी' के।
उस 'कुरी', 'बटी', बैरागी के।
जब 'राजगिरा' फिर आएगा
और ताज गिरें बड़भागी के।

जब हमला हो 'हमलाई' का।
छँट जाए भरम मलाई का।
चीनी पर भारी 'चीना' हो,
टूटेगा बंध कलाई का।

बीतेगा दौर गुलामी का।
गोरों की और सलामी का।
जो बची धरोहर अपनी है,
गुज़रा अब वक्त नीलामी का।

जिसने भी यह कविता लिखी है उस लेखक का हार्दिक आभार

नोट :- रागी, ज्वार, झंगोरा, कोदो, कुटकी, साँवाँ, बाजरा, काँगणी, कुरी, बटी, राजगिरा, हमलाई, चीना ये सब विभिन्न प्रकार के अन्न (millets) हैं, जो गेहूँ और चावल की साज़िश के शिकार हुए हैं। कविताप्रतीकात्मक है, जो मात्र अनाजों तक सीमित नहीं है।



Wednesday, May 15, 2019

सॉवरक्रॉट - न्यू फूड न्यू लाइफ स्टाइल


सॉवरक्रॉट - न्यू फूड न्यू लाइफ स्टाइल

दोस्तों, आज मैं आपको एक नए चमत्कारी भोजन से मुख़ातिब करवा रहा हूँ। इस सात सितारा भोजन को “सावरक्रॉट” कहते हैं। यह नाम इसे जर्मनी में दिया गया। जर्मन भाषा में “सावर” का मतलब खट्टा और “क्रॉट” का मतलब बंदगोभी होता है। अंग्रेजी में इसे “सारकेबेज” कहते हैं। वैसे इसकी उत्पत्ति चीन में हुई, वहाँ से यह जर्मनी पहुँचा और फिर धीरे-धीरे युरोप और अमेरिका में प्रचलित हुआ। हिंदुस्तान की महिलाएं सावरक्रॉट की 2000 वर्षों से प्रतीक्षा कर रही थी और आज मैं यह दिव्य भोजन उनको समर्पित करता हूँ।


सावरक्रॉट बंदगोभी को फर्मेंट करके बनाया जाता है। इस प्रक्रिया में अनेक लेक्टोबेसीलाई जीवाणु पैदा होते र्हैं, जो पाचन क्रिया में सहायक होते हैं, विभिन्न लाभदायक एंजाइम्स बनाते हैं। इन लेक्टोबेसीलाई जीवाणुओं को प्रोबायोटिक्स कहते हैं। साथ ही इसमें ढेर सारे मिनरल्स, विटामिन-सी समेत बी-ग्रुप के सभी विटामिन्स और फाइबर होते हैं। यह एक सर्वोत्तम क्षारीय भोजन है। सावरक्रॉट पाचन तंत्र की सभी बीमारियों को जड़ से खत्म करने की ताकत रखता है। यह सेहत के लिए अमृत है और स्वाद में जन्नत है। इसीलिए मैं इसे “आबेहयात” कहता हूँ और ईश्वर की इस नियामत को घर-घर पहुँचाना चाहता हूँ। 

सावरक्रॉट को हम कई तरह से भोजन में शामिल कर सकते हैं। यह हर व्यंजन को लज़ीज़ और लाजवाब बना देता है। इसके खट्टे और तीखे स्वाद ने महिलाओं का मन मोह लिया है। बच्चे इसे शौक से चटकारे लेकर खाते हैं। इसे साबुत या पेस्ट बनाकर किसी भी चटनी, सूप या सब्जी में खटाई के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। इसे साफ पानी में धोने से इसका खट्टापन थोड़ा कम किया जा सकता है। सलाद, फ्रूट सलाद, पोहा, उपमा, चावल, पुलाव, नूडल्स, पास्ता, खिचड़ी आदि में सावरक्राट बड़ा लज़ीज़ लगता है। समोसा, इडली, डोसा, कचैड़ी, आलूबड़ा, गुझिया आदि में सावरक्राट मिलाने के बाद तो मजा ही आ जाता है। बच्चों के लिए इसका जैम, अचार, मुरब्बा आदि बनाए जाते हैं। इसे घी में तल कर गाजर के हलवे या किसी अन्य स्वीट डिश में मिलाया जा सकता है। इसमें हरी मिर्च, धनिया, प्याज आदि मिलाकर स्टफ्ड परांठे बनाएं। इसे मटन, चिकन या फिश की डिशेज़ में मिलाने से इसका स्वाद दुगुना हो जाता है। जिन्हें पेट संबंधी तकलीफ होती है, वे इसका ज्यूस पीना पसंद करते हैं।


Sunday, May 12, 2019

अलसी - डायबिटीज टर्मीनेटर


अलसी - डायबिटीज टर्मीनेटर

 डायबिटीज क्या है?

      डायबिटीज या मधुमेह एक मेटाबोलिक सिंड्रोम है, जिसमें ब्लड शुगर की मात्रा बहुत बढ़ जाती है, क्योंकि शरीर में ब्लड शुगर को नियंत्रित करने वाले इंसुलिन हार्मोन का बनना या तो कम हो जाता है और/या इंसुलिन रजिसटेंस होने के कारण वह ठीक से कार्य नहीं कर पाता है।

डायबिटीज में अलसी  के चमत्कारी फायदे

      डायबिटीज़ के नियंत्रण में पहला उपचार आहार को संतुलित और संयत बनाना है। आपको अपनी जीवनशैली में बड़े बदलाव करने होते हैं और कड़े अनुशासन का पालन करना पड़ता है। दवाइयों और इंसुलिन की भूमिका द्वितीयक है। अलसी में पोषक तत्वों का भंडार है और डायबिटीज को परास्त करने की असीम शक्ति है। स्वस्थ और संतुलित आहार में अलसी का समावेश सोने पर सुहागा है।     
      ईश्वर ने अलसी को मनुष्य के लिए विशेष अनुराग से बनाया है। सूर्य देवता इस पूरी कायनात में सबसे अधिक प्रेम मनुष्य से करते हैं और अपनी सौर ऊर्जा का सबसे अधिक लाभ मनुष्य को ही पहुँचाते हैं। डैस्योर, मेक्सवेल और बडविग आदि क्वांटम फिजिक्स के वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध भी किया। पौराणिक कथाओं के अनुसार अलसी दुर्गा का साक्षात पांचवा स्वरूप है। अलसी के सेवन से वात, पित्त, कफ सभी विकार दूर होते  हैं। नवरात्रि के पांचवें दिन अलसी की स्कंदमाता के रूप में पूजा होती है और इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। इससे मौसमी बीमारियां नहीं होती, मन को शांति मिलती है और सीधे मोक्ष की प्राप्ति होती है। मां परम सुखदायी है और अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती है।
       जब हम कैंसर के मरीजों को बडविग उपचार देते हैं और नियमित अलसी तेल से भरपूर ओमखंड खिलाते हैं, तो हम देखते हैं कि जिन मरीजों को डायबिटीज़ भी होती है, धीरे-धीरे उनकी दवाइयां और इंसुलिन छूट जाती है और कॉलेस्टेरोल कम होने लगता है। यह सब काल्पनिक कहानियां नहीं अपितु कड़ी सच्चाई है।
      हमारे शरीर का मल्टीटास्किंग ऑपरेटिंग सिस्टम बहुत सारी मेटाबोलिक एक्शन्स को अंजाम देता है, जिनमें पेनक्रियास द्वारा इंसुलिन का निर्माण और शुगर का नियंत्रण बहुत महत्वपूर्ण क्रिया है। यदि हम सब्जियां, साबुत अन्न और लो ग्लाइसीमिक खाद्य पदार्थ ग्रहण करते हैं तो शरीर के लिए ब्लड शुगर को स्थिर और सुरक्षित सीमा में रखना आसान होता है। लेकिन हम जितना अधिक प्रोसेस्ड फूड, चीनी, मेदा आदि का सेवन करेंगे, तो शुगर को नियंत्रित रखना उतना ही मुश्किल होगा।  
      अलसी ब्लड शुगर को संतुलित करती है और डायबिटीज से बचाव और नियंत्रण में सचमुच चमत्कारी है। अलसी शुरू करने के बाद ग्लूकोमीटर से नियमित ब्लड शुगर चेक करते रहें। धीरे-धीरे दवाओं और इंसुलिन की डोज़ कम होने लगती है और बंद भी हो सकती है। यह सब देखकर आपका फिजीशियन भी हैरान रह जाएगा। अलसी में विद्यमान ओमेगा-3, प्रोटीन, फाइबर और लिगनेन डायबिटीज के नियंत्रण में अहम भूमिका  निभाते हैं।
        अलसी का ग्लायसीमिक इंडेक्स 32 है जो बहुत कम होता है, इसलिए यह ब्लड शुगर के स्तर को काबू में रखती है। इसका मतलब यह हुआ कि अलसी के सेवन से ब्लड में शुगर का स्तर एकदम से उछाल नहीं मारता जैसा कि मीठे व्यंजन, मेदा से बने समोसे, बर्गर, पिज्जा या फास्टफूड खाने से मारता है। यदि आपके भोजन में अलसी मिलाई गई है तो शुगर का स्तर धीरे-धीरे बढ़ता है, लंबे समय तक स्वस्थ और सुरक्षित सीमा में बना रहता है। फिर कुछ घंटों बाद शुगर धीरे-धीरे कम होती है। अलसी सेवन का यही खास फायदा है।  

अलसी - जीरो कार्ब फूड नित खाओ मेरे ड्यूड

      डायबिटीज लिए अलसी एक आदर्श और अमृत तुल्य भोजन हैक्योंकि यह  जीरो कार्ब  भोजन है। चौंकिएगा नहींयह सत्य है। मैं आपको समझाता हूँ। 14 ग्राम अलसी में मात्र 4.04 ग्राम कार्बोहाइड्रेट की मात्रा होती है। विदित रहे कि फाइबर कार्बोहाइड्रेट की श्रेणी में ही आते हैं। लेकिन इसमें 3.80 ग्राम तो फाइबर होता है जो न ब्लड में एब्ज़ोर्ब होता है और न ही ब्लड शुगर को प्रभावित करता है। इस प्रकार 14 ग्राम अलसी में मात्र 4.04 - 3.80 = 0.24 ग्राम ही तो कार्बोहाइड्रेट हुआ जो नगण्य है, इसलिये आहारशास्त्री अलसी को  जीरो कार्ब  भोजन  मानते हैं। गेंहू में 72% कार्ब और 7% फाइबर होता है, जबकि अलसी में <2% कार्ब 27% फाइबर होता है। इसलिए यदि अलसी और गेंहू का बराबर मात्रा में मिलाकर रोटी बनाई जाए तो उसमें 37% कार्ब और 17% फाइबर होगा, स्फष्ट है कि यह रोटी डायबिटीज़ के मरीज के लिए कितनी गुणकारी होगी।

फाइबरस्लो एंड स्टिडी विंस द रेस

      अलसी में घुलनशील और अघुलनशील दोनों तरह का फाइबर होते हैं। फाइबर आमाशय में फैल जाते हैं और ग्लुकोज़ के पाचन में रुकावट पैदा करते हैं, जिससे शुगर का नियंत्रण तथा इंसुलिन का स्त्राव स्निग्ध और सहज हो जाता है। इस कारण ब्लड शुगर का लेवल धीरे-धीरे बढ़ता है और लंबे समय तक सुरक्षित सीमा में बना रहता है, जिससे बहुत देर तक भूख नहीं लगती।  

ओमेगा-3 फैट – इंफ्लेमेशन भगाए, जीवन में सुर लाए

      क्रोनिक इंफ्लेमेशन डायबिटीज का मूल कारण है। इसका मतलब यह है कि डायबिटीज में हमारा शरीर क्रोनिक इंफ्लेमेशन की भट्टी में अहिस्ता-आहिस्ता सुलगता रहता है। फलस्वरूप ब्लड-वेसल्स कठोर, संकीर्ण और भंगुर हो जाती है, नाड़िया क्षतिग्रस्त होने लगती है, विभिन्न अंग ठीक से काम नहीं करते और शरीर समय से पहले जीर्णता को प्राप्त होने लगता है। इनके कारण कई जटिलताएं पैदा हो जाती हैं। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय, सान डियेगो के अनुसंधानकर्ताओं ने इंसुलिन रज़िसटेंस और मधुमेह टाइप-2 का प्रमुख कारण इम्यून सेल माक्रोफाज  के कारण हुए क्रोनिक इंफ्लेमेशन (chronic inflammation) को माना है। लेकिन जैसे ही हम ओमेगा-3 फैट से भरपूर अलसी का सेवन शुरू करते हैं, इंफ्लेमेशन शांत हो जाता है तथा जीवन फिर से आनंद की वादियों में सुर और ताल पर थिरकने लगता है। 

अलसी से - फूड क्रेविंग भी कम, वेट भी कम

      जब आहार द्वारा हमें पर्याप्त ओमेगा-3 नहीं मिलता हैं तो हमारा मस्तिष्क समझता है कि हम भूखे हैं और हमारा शरीर उस पोषक तत्व (ओमेगा-3) के लिए के लिए तरस रहा है, जो हमारे लिए बहुत आवश्यक है, जो मिल नहीं रहा है। जैसे ही हम अलसी (ओमेगा-3) का सेवन करते हैं, मन तृप्त हो जाता है, देर तक भूख नहीं लगती और फूड क्रेविंग कम हो जाती है और वज़न भी कम होने लगता है।

लिगनेन – शुगर कंट्रोल में सुपरमेन

      पेनक्रियास (pancreas) ब्लड शुगर के नियंत्रण का मुख्यालय है। इंसुलिन का स्त्राव यहीं होता है। लिगनेन पेनक्रियास को स्वस्थ और सुचारु रखता है। इस तरह लिगनेन ब्लड शुगर के नियंत्रण में सहायता करता है। लिगनेन शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट और आयुवर्धक भी है।

सारे हृदय विकार में, अलसी करे सुधार

      अलसी ब्लडप्रेशर कम करती है। अलसी ट्रायग्लीसराइड्स, टोटल कॉलेस्टेरोल और एल.डी.एल. कॉलेस्टेरोल कम करती है। साथ ही एच.डी.एल. कॉलेस्टेरोल बढ़ाती है। अलसी प्राकृतिक एस्पिरिन है यह ब्लड को पतला रखती है और ब्लड वेसल्स को स्वीपर की तरह  साफ करती है। नियमित अलसी सेवन करने वालों को एस्पिरिन और कॉलेस्टेरोल कम करने की दवाएं लेने की जरूरत नहीं रहती।                            
      दिल का दौरा पड़ने पर मृत्यु का प्रमुख कारण वेंट्रीकुलर एरिदमिया माना जाता है। अनुसंधानकर्ता मानते हैं कि आहार में अलसी (ओमेगा-3 फैट्स) को शामिल करके इस जानलेवा रोग से बचा जा सकता है। जो समझदार और दूरदर्शी लोग समय रहते अलसी का सेवन शुरू कर देते हैं, उन्हें हार्ट अटेक होने की संभावना बहुत कम रहती है। फिर भी यदि किसी को अटेक जाए तो उसे ये घातक वेंट्रीकुलर फिब्रीलेशन रोग नहीं होता और वह एंजियोप्लास्टी करवा कर सुरक्षित घर लौट आता है।  (https://flaxcouncil.ca/resources/nutrition/technical-nutrition-information/flax-a-health-and-nutrition-primer/)

किडनी पर डायबिटीज़ का प्रहार, अलसी सेवन से होगा उपचार

      यदि हम अलसी का सेवन करते हैं तो डायबिटीज़ नेफ्रोपेथी से बचाव और उपचार में मदद मिलती है। डायबिटीज में इंफ्लेमेटरी और वेज़ोकंस्ट्रेक्टिव आइकोसेनॉयड्स  किडनी को डेमेज करते हैं। अलसी में मौजूद ओमेगा-3 में  एंटी-इंफ्लेमेटरी और एंटी-थ्रोम्बोटिक गुण होते हैं, जो किडनी को सुरक्षा प्रदान करते हैं।  प्लेटलेट-एक्टिवेटिंग फेक्टर (PAF) भी किडनी में इंफ्लेमेशन को बढ़ाते हैं। अलसी के लिगनेन  प्लेटलेट-एक्टिवेटिंग फेक्टर के रिसेप्टर्स को निष्क्रिय करते हैं और किडनी को सुरक्षित रखते हैं। इस तरह अलसी के सेवन से डायबिटिक नेफ्रोपेथी के रागियों में यूरिया व क्रियेटिनीन कम होने लगते हैं। इसके साथ रोजाना 180 मि.ग्रा. water soluble यूबीक्विनोल (Cap Ubequinol) भी  लिया जाना चाहिए।
 (https://www.tandfonline.com/doi/abs/10.1080/13590840020013266)  

 अलसी - पैरों की रक्षक  भी, पेडीक्यौर भी

      डायबिटीज के कारण पैरों में ब्लड का प्रवाह कम हो जाता है और नाड़ियां क्षतिग्रस्त हो जाती हैं। जिससे दर्द की अनुभूति नहीं होती, पसीना कम आता है, पैर सूखे रहते हैं, त्वचा में छोटे-मोटे घाव बन जाते हैं, जो आसानी से ठीक नहीं होते। इससे कई बार संक्रमण और गेंग्रीन तक हो जाता है और कभी कभी इलाज हेतु अंगूठा, अंगुलियां या पूरा पैर भी कटवाना पड़ जाता हैं। पैरों की नियमित देखभाल व अलसी खाने से पैरों में ब्लड का प्रवाह बढ़ता हैं, नाड़ियां स्वस्थ होती हैं और पैर के घाव व फोड़े आदि ठीक होने लगते हैं। पैर और एड़ियां भी नम और मुलायम  हो जाती हैं। पैर के नाखूनों की रिमोडलिंग होने लगती है।

 आँखों की ज्योति बढ़ाती है अलसी  

      डायबिटीज के कारण रेटीना में सूक्ष्म ब्लड-वेसल्स के क्षतिग्रस्त होने से डायबीटिक रेटीनोपेथी हो जाती है। इससे अँधापन हो सकता है। अलसी ब्लड-वेसल्स को स्वस्थ रखती है और रेटीनोपेथी से बचाती है। अलसी केटरेक्ट और ग्लुकोमा में भी हितकारी है। अलसी का तेल सर्वोत्तम लुब्रीकेंट आई ड्रॉप है और शुष्क आँख (Dry Eye Syndrome) में बहुत फायदा करता है।

अलसी लैंगिक विकार     

      डायबिटीज के कारण जननेंद्रियों की नाड़ियां निष्क्रिय और सुन्न पड़ जाती हैं, संवेदनाओं का प्रवाह रुक जाता है और ब्लड प्रवाह शिथिल हो जाता है। जिससे कई तरह के लैंगिक विकार जैसे इरेक्टाइल डिसफंक्शन, लिबिडो कम होना और एनोर्गेज़्मिया आदि पैदा हो जाते हैं। अलसी के सेवन से नाड़ियां पुन: सक्रिय हो उठती हैं और ब्लड प्रवाह भी बढ़ जाता है और स्त्री तथा पुरुषों के सारे लैंगिक विकार धीरे-धीरे ठीक होने लगते हैं।

बंद करो रिफाइंड तेल अगर चलानी हो जीवन की रेल 

       डायबिटीज के रोगी को ट्रांसफैट, हाइड्रोजनेटेड फैट्स और रिफाइंड तेल का प्रयोग हर सूरत में बंद कर देना चाहिए। रिफाइंड तेल बनाने की प्रक्रिया में अधिकांश पोषक तत्व, और विटामिन निकाल लिए जाते हैं, जबकि प्राकृतिक तेलों में विटामिन, खनिज और कई पौष्टिक तत्व होते हैं। रिफाइंड तेल बनाने की क्रिया में तेल को बहुत ऊँचे तापमान पर गर्म किया जाता है। तेल में गौंद जैसे फोस्फोलिपिड्स और अन्य यौगिक होते हैं, जिन्हें निकालने के लिए फोस्फोरिक एसिड मिलाया जाता है।
      तेल का प्रायः आंशिक हाइड्रोजनेशन किया जाता है। इसके लिए निकल की उपस्थिति में तेल में हाइड्रोजन गैस प्रवाहित की जाती है। इसके बाद फ्री फैटी एसिड्स अलग करने के लिए कॉस्टिक सोडा मिलाया जाता है। ब्लीचिंग आखिरी अवस्था है। इसमें ब्लीचिंग क्लेज मिला कर बीटाकेरोटीन और आवश्यक वसा अम्ल अलग किए जाते हैं।

सीख लो ट्रांसफैट का ज्ञान, बनोगे स्वस्थ और बलवान

      जब तेल को उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है तो उसमें जानलेवा ट्रांसफैट बन जाते हैं। सभी रिफाइंड तेलों और वनस्पति घी में भारी मात्रा में जानलेवा ट्रांसफैट होते हैं। तेल को मात्र 3000 सेल्सियस तक गर्म करने से कैंसरकारी नाइट्रोसेमीन्स बन जाते हैं। 3200 सेल्सियस पर ट्रांसफैट बनने लगते हैं और 3920 सेल्सियस पर तो ट्रांसफैट की मात्रा कातिलाना हो जाती है। तेल को जितनी बार गर्म करेंगे, ट्रांसफैट की मात्रा उतनी ही बढ़ती जाएगी। इसीलिए पोली-अनसेचुरेटेड आयल्स (PUFAs)  और मोनो-अनसेचुरेटेड आयल्स (MUFAs) को गर्म नहीं करना चाहिए। डीप-फ्राइंग या हाई-टेंप्रेचर कुकिंग के लिए हमेशा सेचुरेटेड फैट्स जैसे घी, कोकोनट  फैट ही प्रयोग करना चाहिए। 

तेल तड़का और रोग भड़का        

      तलने के लिए नारियल का वर्जिन तेल उपयुक्त रहता है। इसमे मीडियम चेन फैटी एसिड होते हैं, जो बहुत स्वास्थ्यप्रद और स्टेबल होते हैं। यह गर्म करने पर खराब भी नहीं होता। घी भी तलने के लिए ठीक रहता है। हाइड्रोजनेटेड फैट का प्रयोग कभी नहीं करें। हल्के फुल्के छौंक या तड़का लगाने के लिए सरसों का अनरिफाइंड तेल बेहतर विकल्प है। आजकल सभी तेल निर्माता तेलों में 75 प्रतिशत तक खराब, रिफाइंड तेल, पाम आयल की मिलावट करते हैं। इसलिए यदि हमें स्वस्थ रहना है, बरसों जीना है तो हमें एक छोटी घरेलू तेल निकालने की एक्सपेलर मशीन तुरंत खरीद लेना चाहिए। इससे तेल निकालना भी आसान है और इसकी सफाई और रख-रखाव चुटकियों में हो जाता है। इससे आप सभी तेल निकाल सकते हैं। आजकल अपने मनोरंजन और सुख-सुविधा के लिए हम मंहगी से मंहगी चजें जैसे स्मार्टफोन या स्मार्ट टीवी खरीद रहे हैं, तो क्या हम एक छोटी सी ऑयल एक्सपेलर नहीं खरीद सकते? फिर यह तो हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा अहम मसला है। इसे हम अपने किचन काउंटर पर रख सकते हैं।  

डायबिटीज में अलसी कैसे खाएं

      संतुलित भोजन में अलसी का समावेश आसान, सस्ता और दूरदर्शी कदम है, इसके परिणाम बड़े चमत्कारी मिलते हैं। अलसी का सेवन करने से पहले इसे पीसना जरूरी है। इसे मिक्सर के ड्राई ग्राइंडर में दरदरा पीसें। पानी भी ज्यादा पिएं। डायबिटीज के रोगी को पूरा फायदा लेने के लिए रोजाना 30 से 40 ग्राम अलसी खाना चाहिए। रोस्टेड अलसी या अलसी के मुखवास का प्रयोग कभी नहीं करें।
अलसी की रोटी       
डायबिटीज के रोगी को रोज सुबह और शाम अलसी का सेवन करना चाहिए। 15-20 ग्राम अलसी सुबह और 15-20 ग्राम अलसी शाम को सेवन करें। अलसी को पीस कर आटे में मिला कर रोटी बना कर ही खाना चाहिए। डायबिटीज के लिए यही सबसे अच्छा तरीका है।
अलसी का तेल  
      यदि हम डायबिटीज और उसके काम्प्लिकेशंस का ढंग से उपचार करना चाहते हैं तो हमें अलसी के कोल्ड-प्रेस्ड तेल को दही या पनीर में मिला कर लेना नितांत आवश्यक है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार रोजाना 30 एम.एल. अलसी का तेल लेना चाहिए।  विदित रहे कि अलसी तेल सल्फरयुक्त प्रोटीन (जिसका सर्वोत्तम स्त्रोत क्रीम जैसा पनीर है) के साथ लेने पर पूरा फायदा देता है। अलसी का तेल शुरू करने के बाद आप देखेंगे कि आपके जीवन की मर्सडीज़ स्वास्थ्य की फोरलेन पर कैसे रफ्तार पकड़ती है। अलसी तेल के चमत्कार देख कर आपके होश उड़ जाएंगे।  डायबिटीज़ की दवाइयां और इंसुलिन के इंजेक्शन सब छूट जाएंगे।  

Saturday, February 16, 2019

मल्टीपल माइलोमा ओवरव्यू - इस विषय पर एक बेहतरीन पुस्तक हिंदी में ...


मल्टीपल माइलोमा

मल्टीपल माइलोमा ओवरव्यू


मल्टीपल माइलोमा प्लाज्मा सेल्स का कष्टदायक कैंसर है। प्लाज्मा सेल्स बोनमेरो में पाए जाते हैं और हमारे रक्षातंत्र या इम्यून सिस्टम के प्रमुख सिपाही हैं। विदित रहे कि हड्डियों के अंदर स्थित गूदे को अस्थिमज्जा या बोनमेरो कहते हैं। बोनमेरो हमारे शरीर का एक ऐसा कारखाना है, जहां ब्लड में पाई जाने वाले सभी सेल्स बनते हैं। याद रहे यह रोग 1848 में परिभाषित किया गया था।

रक्षातंत्र में कई तरह की सेल्स होते हैं, जो साथ मिल कर इन्फेक्शन या किसी बाहरी आक्रमण का मुकाबला करते हैं। इनमें लिम्फोसाइट्स प्रमुख हैं जो मुख्यतः दो तरह के होती हैं पहले टी-सेल्स और दूसरे बी-सेल्स।
जब शरीर पर किसी बैक्टीरिया का आक्रमण होता है तब बी-सेल्स मेच्यौर होकर प्लाज्मा सेल्स बनते हैं। ये प्लाज्मा सेल्स अपनी सतह पर एंटीबॉडीज़ (जिन्हें इम्युनोग्लोब्युलिन भी कहते हैं) बनाते हैं, जो बैक्टीरिया से युद्ध करके उनका सफाया करते हैं। लिम्फोसाइट्स शरीर के कई हिस्सों जैसे लिम्फनोड्स, बोनमेरो, आंतों और ब्लड में पाए जाते हैं। लेकिन प्लाज्मा सेल्स अमूमन बोनमेरो में ही रहते हैं।

जब प्लाज्मा सेल्स कैंसरग्रस्त होते हैं, तो वे अनकंट्रोल्ड होकर तेज़ी से बढ़ने लगते हैं और ट्यूमर का रूप ले लेते हैं, जिसे प्लाज्मासाइटोमा कहते हैं। यदि एक ही ट्यूमर बनता है तो इसे आइसोलेटेड या सोलिटरी प्लाज्मासाइटोमा कहते हैं, लेकिन यदि एक से अधिक ट्यूमर बनते हैं तो इसे मल्टीपल माइलोमा कहते हैं। ये गांठें मुख्यतः बोनमेरो में बनती हैं। 


मल्टीपल माइलोमा में तेजी से बढ़ते प्लाज्मा सेल्स बोनमेरो में फैल जाते हैं और दूसरे सेल्स को बढ़ने के लिए पर्याप्त जगह नहीं मिल पाती है। परिणाम स्वरूप अन्य कोशिकाओं की आबादी कम होने लगती है। यदि आर.बी.सी. का बनना कम होता है तो मरीज एनीमिया का शिकार हो जाता है, उसे कमजोरी व थकान होती है और शरीर सफेद पड़ जाता है। प्लेटलेट्स कम (Thrombocytopenia) होने पर ब्लीडिंग होने का खतरा बना रहता है। डब्ल्यु.बी.सी. कम (Leucopenia) होने पर इन्फेक्शन्स हो सकते हैं। 



माइलोमा में बोन्स भी कमजोर होने लगती है। बोन्स को स्वस्थ और मजबूत रखने का कार्य दो तरह के सेल्स मिल जुलकर काम करते हैं। जहां ओस्टियोब्लास्ट सेल्स नये बोन टिश्यू बनाते हैं, वहीं ओस्टियोक्लास्ट सेल्स पुराने बोन टिश्यूज़ को गलाने का काम करते हैं। माइलोमा सेल्स ओस्टियोक्लास्ट एक्टिवेटिंग फेक्टर सीक्रीट करते हैं, जिसके प्रभाव से ओस्टियोक्लास्ट तेजी से हड्डियों को गलाने लगते हैं। दूसरी तरफ ओस्टियोब्लास्ट को नये बोन टिश्यूज़ बनाने के आदेश नहीं मिल पाते हैं, फलस्वरूप हड्डियां कमजोर व खोखली होने लगती हैं, मरीज को दर्द होता है और अचानक हड्डियां चटकने व टूटने लगती है। हड्डियां कमजोर होने से उनका कैल्सियम भी पिघलने लगता है और पिघल कर ब्लड में मिल जाता है, जिससे ब्लड में कैल्सियम का लेवल बढ़ने लगता है।

असामान्य और कैंसरग्रस्त प्लाज्मा सेल्स इन्फेक्शन से लड़ने लायक एंटीबॉडीज बनाने में असमर्थ होते हैं। इसलिए ये शरीर की रक्षा करने में पूरी तरह बेबस और नाकामयाब रहते हैं। माइलोमा सेल्स एक ही प्लाज्मा सेल की अनेक कार्बन कॉपीज़ की तरह होते हैं और ये एक ही तरह की मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज या M प्रोटीन बनाते हैं। यह माइलोमा का खास डिफेक्ट है। इस प्रोटीन को पेराप्रोटीन या M स्पाइक भी कहते हैं। जब बोनमेरो और ब्लड में इस प्रोटीन की मात्रा बढ़ने लगती है तो मरीज को कई तकलीफें होती हैं। इम्युनोग्लोब्युलिनेज़ प्रोटीन चेन्स 2 लंबी चेन्स (heavy) और 2 छोटी चेन्स (light) से बनी होती हैं। कई बार किडनी इस M प्रोटीन का यूरीन में एक्सक्रीट करते हैं। यूरीन में निकलने वाले इस प्रोटीन को लाइट चेन या बैन्स जोन्स प्रोटीन कहते हैं। ये किडनी को नुकसान पहुँचा सकते हैं।
मैं क़तरा होकर भी  तूफां से जंग लेती हूंमेरा बचना  समंदर  की जिम्मेदारी  है,
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत, यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है।
- लिजा रे
अमेरिकन कैंसर सोसाइटी के अनुसार अकेले अमेरिका में हर वर्ष मल्टीपल माइलोमा के 20,000 नये रोगी रजिस्टर होते हैं। अमेरिका में माइलोमा का इंसीडेन्स 1% है। अफ्रीकी अमेरिकन्स में इंसीडेन्स 2% है। यह वृद्धावस्था का रोग है, इसके इंसीडेन्स की एवरेज एज 68-70 साल है। स्त्रियों की तुलना में यह पुरुषों में ज्यादा होता है। यहां औसत 5 वर्षीय जीवन काल लगभग 35% है। इसके युवा रोगी अपेक्षाकृत ज्यादा जी पाते हैं। सन् 2010 में पूरे विश्व में 74000 लोगों की मृत्यु मल्टीपल माइलोमा से हुई है। नॉन-होजकिन्स लिंफोमा के बाद यह सबसे आम हिमेटोलोजी का कैंसर है। विश्व में कैंसर के 1% रोगी मल्टीपल माइलोमा के होते हैं और कैंसर से मरने वाले 2% रोगी माइलोमा के होते हैं। 
https://www.amazon.com/Multiple-Myeloma-Overview-Alternative-Treatments-ebook/dp/B07NP7HSHL

मैं गेहूं हूँ

लेखक डॉ. ओ.पी.वर्मा    मैं किसी पहचान का नहीं हूं मोहताज  मेरा नाम गेहूँ है, मैं भोजन का हूँ सरताज  अडानी, अंबानी को रखता हूँ मुट्ठी में  टा...