ओटो वारबर्ग जिन्होंने कैंसर का मुख्य कारण खोजा

बीसवें दशक के प्रारंभ में डॉ. ओटो ने जीवित कोशिकाओं द्वारा ऑक्सीजन का उद्ग्रहण करने की क्रिया (कोशिकीय श्वसन- क्रिया) पर शोध शुरू किया। सन् 1923 में इसके लिए उन्होंने एक विशेष दबाव-मापक यंत्र विकसित किया जिसे उन्होंने ‘वारबर्ग मेनोमीटर’ नाम दिया। यह मेनोमीटर जैविक ऊतक की पतली सी तह द्वारा भी ऑक्सीजन के उद्ग्रहण की गति को नापने में सक्षम था। उन्होंने श्वसन-क्रिया को उत्प्रेरित करने करने वाले तत्वों पर बहुत कार्य किया और ऑक्सीजन-परिवहन एन्जाइम साइटोक्रोम की खोज की, जिसके लिए उन्हें 1931 में नोबेल पुरस्कार मिला था। ओटो ने पहली बार बतलाया था कि कैंसर कोशिका सामान्य कोशिका की तुलना में बहुत ही कम ऑक्सीजन ग्रहण करती है। उन्होंने हाइड्रोजन सायनाइड और कार्बन-मोनो-ऑक्साइड पर भी शोध की और बताया कि ये श्वसन-क्रिया को बाधित करते हैं। उन्होंने श्वसन की जीवरसायन क्रियाओं के लिए सहायक उपघटक निकोटिनेमाइड और डिहाइड्रोजिनेज एन्जाइम आदि का बहुत अध्ययन किया। उन्होंने यह भी सिद्ध किया था कि कैंसर कोशिका के पीएच और ऑक्सीजन उपभोग में सीधा संबन्ध होता है। यदि पीएच ज्यादा है तो कोशिका में ऑक्सीजन की मात्रा ज्यादा होगी। उन्होंने यह भी बतलाया कि कैंसर कोशिका में लेक्टिक एसिड और कार्बन-डाई-ऑक्साइड बनने के कारण पीएच बहुत कम लगभग 6.0 होता है। उनकी शोध के अन्य विषय माइटोकोन्ड्रिया में होने वाली इलेक्ट्रोन-परिवहन श्रंखला, पौधों में होने वाली प्रकाश-संश्लेषण क्रिया, कैंसर कोशिका का चयापचय आदि थे।

वे हमेशा अध्ययन और मानव सेवा को सर्वोपरि मानते थे और वे आजीवन अविवाहित रहे। डॉ. ओटो जीवन के अंतिम पड़ाव में थोड़े चिड़चिड़े और सनकी हो गये थे। वे समझने लगे थे कि सारी बीमारियाँ प्रदूषित चीजें खाने से ही होती हैं, इसलिए वे ब्रेड भी अपने खेत में पैदा हुए जैविक गैंहूं की बनी हुई खाना पसन्द करते थे। कई बार तो वे रेस्टॉरेन्ट में चाय पीने जाते थे, पैसे भी पूरे देते थे परन्तु बदले में सिर्फ गर्म पानी लेते थे और अपने साथ लाई हुई जैविक चाय प्रयोग करते थे।
कैंसर का मुख्य कारण और बचाव
लिन्डाव का संशोधित व्याख्यान (संक्षिप्त)
द्वारा ओटो वारबर्ग निर्देशक, मेक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट, कोशिकीय संरचना विज्ञान. बर्लिन-डेह्लेम, जर्मनी।
अंग्रेजी संस्करण - डीन बर्क, नेशनल कैंसर इंस्टिट्यूट, बेथेस्डा, मेरीलैंड।
डीन बर्क द्वारा संक्षिप्त विवरण -

भाइयों और बहनों,
किसी भी रोग के मुख्य (Primary) और द्वितीयक या गौंण (Secondary) कारण होते हैं। उदाहरण के तौर पर प्लेग का मुख्य कारण प्लेग का कीटाणु है, जबकि द्वितीयक कारण गंदगी, चूहे और पिस्सू (जो प्लेग के कीटाणुओं को चूहे से मनुष्य तक पहुँचाते हैं) हैं। मुख्य कारण से अभिप्राय यह है कि यह उस रोग से पीड़ित हर रोगी में विद्यमान होता है।
इसी तरह कैंसर के भी अनगिनत द्वितीयक कारण हो सकते हैं। लेकिन कैंसर का मुख्य कारण ऑक्सीजन द्वारा सामान्य कोशिकीय श्वसन-क्रिया का बाधित होकर शर्करा के खमीरीकरण (Fermentation of Sugar) में परिवर्तित हो जाना है। शरीर की सभी कोशिकाएं ऑक्सीजन द्वारा श्वसन करके ऊर्जा प्राप्त करती हैं, जबकि कैंसर कोशिका शर्करा को खमीर करके ऊर्जा प्राप्त करती है। सभी सामान्य कोशिकाएँ दरअसल वायुजीवी हैं और कैंसर कोशिका आंशिक अवायुजीवी हैं जो निम्न-स्तरीय एककोशीय जीवों की भांति ग्लूकोज का खमीर करके जीवन व्यापन करती है। भौतिक और रसायनशास्त्र की दृष्टि से सामान्य और कैंसर कोशिका में यह अंतर महत्वपूर्ण है।
डेह्लेम इन्स्टिट्यूट में शुरू से ही कैंसर पर शोध हो रही थी। यहाँ ऑक्सीजन-परिवहन एन्जाइम और हाइड्रोजन-परिवहन एन्जाइम्स की खोज हुई और उनकी रसायनिक संरचना का बारीकी से अध्ययन किया गया। यदि यह सत्य है कि कैंसर का प्रमुख कारण ऑक्सीजन द्वारा सामान्य श्वसन क्रिया का बाधित होकर खमीरीकरण में परिवर्तित होना है तो बिना किसी अपवाद के सभी कैंसर कोशिकाएँ खमीर द्वारा श्वसन क्रिया करेंगी और सामान्य कोशिकाएँ कभी भी खमीर द्वारा श्वसन नहीं करेंगी।
दो अमेरिकी वैज्ञानिकों मेल्मग्रेन और फ्लेनेगान ने सरल प्रयोग से यह सिद्ध किया था। उन्होंने चूहों के रक्त में टिटेनस के बीजाणु (Spores) छोड़े, जो ऑक्सीजन के अभाव में ही अंकुरित होकर फूट सकते हैं और टिटेनस फैलाने वाले कीटाणुओं को जन्म देते हैं। उन्होंने पाया कि चूहे स्वस्थ थे और उनमें टिटेनस रोग के कोई लक्षण दिखाई नहीं दे गहे थे, क्योंकि उनके शरीर में कहीं भी ऐसा स्थान नहीं था जहाँ पर्याप्त ऑक्सीजन विद्यमान नहीं हो। लेकिन जब कैंसर से पीड़ित चूहों के रक्त में टिटेनस के बीजाणु (Spores) छोड़े तो चूहे टिटेनस रोग से ग्रसित हो गये, क्योंकि उनके शरीर में कैंसर की गाँठों के भीतर ऑक्सीजन की मात्रा इतनी कम थी कि टिटेनस के बीजाणु अंकुरित होकर फूटे और टिटेनस के कीटाणु बाहर निकले और चूहे टिटेनस रोग से ग्रसित हो गये। इन प्रयोगों से यह स्पष्ट हो जाता है कि कैंसर कोशिकाएँ आंशिक अवायुजीवी और सामान्य कोशिकाएँ वायुजीवी होती हैं।
मोरिस हिपेटोमा में खमीरीकरण (The Fermentation of Morris Hepatomas)

भ्रूण-कोशिकाओं का कैंसर कोशिकाओं में परिवर्तित होना (Transformation of Embryonic Metabolism into Cancer Metabolism)

जब चूहे के भ्रूण की कोशिकाओं को एक उपयुक्त माध्यम में रखा गया जहाँ ऑक्सीजन का स्तर भी पर्याप्त था तो वे ऑक्सीजन की मौजूदगी में वायवीय (Aerobic) श्वसन-क्रिया करती रही, विभाजित होती रही और खमीरीकरण भी नहीं हुआ। लेकिन जब ऑक्सीजन का स्तर इतना कम कर दिया कि कोशिकाओं की वायवीय (Aerobic) श्वसन-क्रिया आँशिक रूप से बाधित होने लगी तो 48 घन्टे में दो कोशिकीय विभाजन के बाद वे खमीर करने वाली कैंसर-कोशिकाओं में परिवर्तित हो गई। और वे अवायवीय-श्वसन करने लगी।

हमारी पृथ्वी के विकास के प्रारंभिक दौर में वातावरण ऑक्सीजन रहित था और जीवन के नाम पर सिर्फ अविभेदित (undifferentiated) एक-कोशीय खमीर द्वारा श्वसन करने वाले जीव ही विद्यमान थे। फिर अरबों वर्षों बाद हमारे वातावरण में ऑक्सीजन का आगमन हुआ, तो ये अविभेदित (undifferentiated) एक-कोशीय जीव विभेदित (differentiated) होने लगे, वायवीय (Aerobic) श्वसन करने लगे और इस तरह पृथ्वी पर वनस्पतियों और जीवजन्तुओं का विकास शुरू हुआ। लेकिन यह अविभेदन (undifferentiation) हम आज भी कैंसर कोशिकाओं में देख रहे हैं। हम यह भी देखते हैं कि कई बार वातावरण में पर्याप्त ऑक्सीजन होने पर भी कैंसर का विकास हो रहा है, क्योंकि या तो विभाजित हो रही कोशिकाओं तक पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं पहुँच रही है या कोशिकाओं में श्वसन-एंजाइम्स को उत्प्रेरित करने वाले सक्रिय तत्व विद्यमान नहीं हैं। लेकिन जो भी स्थिति हो कैंसर में हमेशा ऑक्सीजन-श्वसन बाधित होता है, खमीरीकरण होता है और कोशिकाएं अविभेदित होने लगती हैं। कैंसर कोशिकाओं में व्यर्थ अनियंत्रित विभाजित होने की क्षमता बचती है और जीवन के लिए आवश्यक सभी कार्य-क्षमताएं समाप्त हो जाती हैं। अर्थात जब श्वसन बाधित होता है, कैंसर जन्म लेता है, तब जीवन का अस्तित्व तो रहता है, पर वह विभाजित हो रही दिशाहीन कोशिकाओं के समूह (गांठे या ट्यूमर) के सिवा कुछ नहीं होता है।
अब प्रश्न है कि क्यों ऑक्सीजन भेदन (differentiation) करती है और ऑक्सीजन की कमी क्यों अविभेदन (undifferentiation) करती है? या क्यों श्वसन-क्रिया भेदन (differentiation) करती है और खमीरीकरण अविभेदन (undifferentiation) करता है। जबकि श्वसन-क्रिया और खमीरीकरण दोनों ही कोशिका विभाजन करने में सक्षम हैं और यदि खमीरीकरण भेदन की क्षमता भी होती तो शायद इस पृथ्वी पर कैंसर का अस्तित्व ही नहीं होता।
कैंसर का जीवरसायन शास्त्र
इस तरह कई प्रश्न हैं जिनका स्पष्टीकरण संभवतः जीवरसायन शास्त्र दे सकता है। श्वसन-क्रिया और खमीरीकरण दोनों में ही फोस्फेट (जैविक) ऊर्जा प्रयुक्त होती है लेकिन दोनों में फोस्फोरिलेशन का तरीका अलग-अलग होता है। कैंसर के संदर्भ में देखें तो वायवीय फोस्फोरिलेशन भेदन (differentiation) कर सकने में सक्षम है, लेकिन खमीरी फोस्फोरिलेशन में यह क्षमता नहीं है। श्वसन और खमीरीकरण के चयापचय-पथ से स्पष्ट है कि पाइरुविक एसिड बनने तक दोनों के चयापचय-पथ में कोई फर्क नहीं है। लेकिन इसके बाद दोनों का क्रिया-पथ अलग-अलग ढ़ंग से होता है। खमीरीकरण में पाइरुविक एसिड एक ही रसायनिक क्रिया में डाइहाइड्रो-निकोटिनेमाइड द्वारा अपघटित होकर लेक्टिक-एसिड बनता है। जबकि वायवीय श्वसन में पाइरुविक एसिड ऑक्सीजन की उपस्थिति में कई जटिल रसायनिक क्रियाओं से गुजर कर जल और कार्बन-डाइ-ऑक्साइड बनाता है।
मुख्य बिन्दु
खमीरीकरण की अपेक्षा श्वसन-क्रिया को बाधित करना आसान है क्योंकि श्वसन ज्यादा जटिल प्रक्रिया है।
श्वसन-क्रिया बाधित होने पर कोशिकाएं बड़ी सरलता से खमीरीकरण करने लगती हैं क्योंकि दोनों क्रियाओं में एक ही उत्प्रेरक निकोटिनेमाइड कार्य करता है।
जब कोशिका में सामान्य श्वसन-क्रिया बाधित होती है और खमीरीकरण उसकी जगह लेता है, तो ग्लूकोज का अपघटन होता है और ऊर्जा की कमी के कारण कोशिका मृत हो जाती है। ग्लूकोज के अपघटन का मतलब है खमीरीकरण द्वारा मृत्यु और अवायवीय श्वसन का मतलब है खमीरीकरण द्वारा जीवन।
कैंसर इसीलिए ही होता है क्योंकि श्वसन-क्रिया ही कोशिकाओं को भेदन (differentiation) की क्षमता देती है, न कि खमीरीकरण।
अंत में मैं यही कहना चाहता हूँ कि अब कैंसर कोई रहस्यमय रोग नहीं रह गया है और इसका प्रमुख कारण सबके सामने स्पष्ट है। हमें कैंसर से बचाव की दिशा में कार्य करना चाहिये। आखिर कब तक कीमोथैरेपी और रेडियोथैरेपी से जुड़े लालची बहुराष्ट्रीय संस्थान कैंसर पर हुई शोध का लाभ आम लोगों तक नहीं पहुँचने देंगे और उन्हें भ्रमित करते रहेंगे। शायद तब तक इस संसार में करोड़ों लोग इस रोग से मरते रहेंगे।
वारबर्ग के व्याख्यान पर विल्हेम एच की टिप्पणी

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