Sunday, July 10, 2011

Dil ki Dushman - Diabetes





भूमिका 


आइये सबसे पहले हम जाने हृदय के भावनात्मक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक स्वरूप को जो उसके संरचनात्मक स्वरूप से ज्यादा अनूठा और महत्वपूर्ण है। कभी यह बहुत विशाल है पर कभी बहुत संकीर्ण भी है, यह कभी सफेद तो कभी काला है, किसी का अच्छा तो किसी का बुरा है। कहानियाँ, उपन्यास, गीत, गज़ल और कविताएँ बिना दिल की बातों के कहाँ पूरी होती हैं। यह कवियों और शायरों की रोज़ी-रोटी है। शम्मीकपूर ने एक फिल्म में दिल को झरोखा ही बना दिया और उसमें प्रेमिका को बैठा कर खूब झूला झुलाया था। देवआनंद ने इसे कलम समझ कर खूब प्रेम-पातियाँ लिखीं थी। अक्सर लोग सारी सुख-सुविधा वाले घर छोड़ कर प्रेमी या प्रेमिकाओं के दिल में रहना पसन्द करते हैं। मुफ़लिस प्रेमियों के पास तो प्रेमिकाओं के दिल में रहने के सिवा कोई बसेरा होता भी नहीं है। मीरा ने तो अपने दिल को पिया श्याम का मंदिर ही बना लिया था। यदि दिल न होता तो इस दुनियाँ में प्यार मुहब्बत भी नहीं होती। शरीर में केवल यही एक अंग है जिसमें भावनाएँ होती है, प्यार की अनुभूति होती है। इस दुनिया में प्यार, दुलार, अनुराग और मुहब्बत कुछ इसी के दम पर है। इसमें दया है, करुणा हैं, ममता है, अनुराग है, घमन्ड है, ईर्षा है, द्वेश है, नफरत है। यह दीवाना है, पागल है, प्रेमी है, आशिक है, झूँठा है, फरेबी है, चोर है, कमीना है, कातिल है। यह दिल ही है जो विपरीत लिंग को आकर्षित कर अपने प्रेमजाल में बाँध कर उससे विवाह कर लेता है, और फिर दोनों के प्रजनन अंग स्वतः ही आपस में रसूकात बना कर एक नये जीवन का सृजन करते हैं। इसतरह धरालोक में जीवनचक्र को आगे बढ़ाने का महान कार्य भी बिना दिल के संभव नहीं है।

दिल से जुडे दिलचस्प तथ्य

• स्त्रियों का दिल अपेक्षाकृत तेज़ धड़कता है।
• हृदय की पहली शल्य क्रिया डॉ. डेनियल हॉल ने 1893 में की थी।
• मानव हृदय एक मिनट में 72 बार, एक दिन में 1 लाख बार, एक वर्ष में 3.5 करोड़ बार और पूरे जीवनकाल में 3 अरब बार धड़कता है।
• अपने पूरे जीवनकाल में हृदय 10 लाख बैरल रक्त पंप करता है।
• विश्व का पहला हृदय-प्रत्यारोपण 1967 में केपटाउन, साउथ अफ्रीका में हुआ था।
• विश्व में रोज 2700 लोग हृदय-रोग से मरते हैं।
• हृदय मात्र 12 ऑन्स का होता है पर रोज 2000 गैलन रक्त 60,000 मील लम्बे वाहिकाओं के जाल में प्रवाहित करता है।
• फ्राँस के चिकित्सक रेने लेनेक को स्त्रियों के वक्षस्थल पर कान रख हृदय की धड़कन सुनना बहुत असहज लगता था, इसलिए उन्होंने स्टेथोस्कोप का आविष्कार किया था।
• 1903 में विलेम इन्थोवेन ने ई.सी.जी. का आविष्कार किया था।
• मानव भ्रूण के विकास काल के 23 वें दिन, जब बह भ्रूण माँ के पेट में सिर्फ़ मटर के दाने के बराबर होता है, दिल धड़कना आरंभ करता है और उम्र भर धड़कता रहता है।
• करीब 150 टन भारी व्हेल मछली का दिल एक मिनट मे 7 बार धड़कता है, जबकि 3 टन के हाथी का 46 बार, बिल्ली (1.3 किग्रा) का 240 बार और पीतचटकी नामक पक्षी का हृदय 1000 बार धड़कता है।
• मनुष्य का हृदय जीवन भर जितना काम करता है, उतने श्रम से एक मालगाड़ी को यूरोप के सबसे ऊंचे पहाड़ माउन्ट ब्लैक ऊंचाई 4810 मीटर तक पहुंचाया जा सकता है।

हृदय की संरचना   
हृदय हमारे शरीर का सबसे आवश्यक बंद मुट्ठी के आकार का माँसल अंग है जिसका मुख्य कार्य शरीर को निरन्तर रक्त प्रेषित करना है। यह सामान्यतः 72 बार प्रति मिनट आजीवन अविरत धड़कता है और हमें मोक्ष की राह दिखा कर ही सेवानिवृत्ति लेता है। इसका भार औसतन महिलाओं में 250 से 300 ग्राम और पुरुषों में 300 से 350 ग्राम होता है। यह वक्ष-गुहा (छाती) में मध्य से थोड़ा बाँई तरफ दोनों फुफ्फुसों के बीच स्थित होता है और एक आघातरोधी विशिष्ट द्रव से भरे दोहरी तह वाले खोल, जिसे पेरीकार्डियम कहते हैं, में सुरक्षित और स्थिर रहता है। हृदय की भित्ती में तीन तहें क्रमशः 1- इपीकार्डियम जो सबसे बाहर की तह है। 2- मायोकार्डियम जो एक अनैच्छिक पेशी involuntary muscle उतक है। और 3- एन्डोकार्डियम जो सबसे अन्दर की तह है।
हृदय की संरचना चतुर्कक्षी, चतुर्द्वारी और चतुर्मुखी है अर्थात इसमें चार कक्ष होते हैं, चार कपाट (Valves) होते हैं जो एक ही तरफ खुलते हैं और यह चार रक्त-सरिताओं द्वारा ही शरीर के रक्त-वाहिका तंत्र से जुड़ा रहता है। ऊपर के कक्षों को क्रमशः बाँया और दाँया अलिन्द तथा नीचे के कक्षों को बाँया और दाँया निलय कहते हैं। यूँ समझ लीजिये कि यह एक प्रकार से यह चार कमरों वाला ड्युप्लेक्स फ्लेट है। दोनों आलिन्द पतली भित्तियों वाले कक्ष है जो शिराओं से रक्त ग्रहण करते हैं और निलय मोटे घने मायोकार्डियम वाले कक्ष हैं जो बलपूर्वक रक्त को हृदय से बाहर पंप करते हैं। दोनों आलिन्दों और निलयों के बीच एक भित्ती होती है, जो हृदय के दाँयें और बाँयें हिस्सों को अलग करती है। प्रकृति ने हृदय को एक ही तरफ खुलने वाले चार कपाट या वाल्व भी दिये हैं ताकि रक्त एक ही दिशा में प्रवाहित हो। दाँये आलिन्द और दाँये निलय के बीच के वाल्व को ट्राइकस्पिड वाल्व कहते हैं। इसी तरह बाँये आलिन्द और बाँये निलय के बीच के वाल्व को माइट्रल वाल्व कहते हैं। दांये निलय और मुख्य पलमोनरी-धमनी के बीच के अर्धचन्द्राकार वाल्व को पलमोनरी वाल्व और बांये निलय और महा-धमनी के बीच के अर्धचन्द्राकार वाल्व को एओर्टिक वाल्व कहते हैं। जब निलय का संकुचन होता है तो आलिन्द और निलय के बीच के वाल्व बन्द हो जाते हैं जो रक्त को आलिन्द में जाने से रोकते हैं। जब निलय का विस्तारण होता है, ये अर्धचन्द्राकार वाल्व बन्द होकर रक्त को धमनियों से निलय में आने से रोकते हैं।


हृदय में रक्त परिवहन की कार्यप्रणाली
यह महत्वपूर्ण है कि दोनो आलिन्द और निलय आकुंचन और विस्तारण एक साथ करते हैं। हृदय में दांये और बांये दोनों निलय रक्त को एक साथ बाहर पम्प करते हैं। शरीर के विभिन्न अंगों से अशुद्ध रक्त महाशिरा द्वारा दांये आलिन्द में कार्बन-डाई-ऑक्साइड से भरे सूक्ष्म सिलेन्डरों से लदे लाल-कणों को लेकर पहुँचता है। शरीर की विभिन्न कोशिकाएँ और ऊतक प्राणवायु (ऑक्सीजन) ग्रहण कर सिलेन्डरों में कार्बन-डाई-ऑक्साइड भर देते हैं। आप ऐसे समझिये कि प्रोटीन और लोहे से बने ये सिलेन्डर हिमोग्लोबिन का काल्पनिक रूप हैं और लाल रक्तकण इन सिलेन्डरों का वाहन हैं (जैसे इन्डेन गैस के लाल सिलेन्डरों से लदी लारी)। ट्राइकस्पिड वाल्व खुलने पर रक्त दांये निलय में भर जाता है और जब निलय का आकुंचन होता है तो ट्राइकस्पिड वाल्व बन्द हो जाता है तथा पलमोनरी वाल्व खुल जाता है। फलस्वरूप रक्त पलमोनरी धमनियों द्वारा शुद्धिकरण हेतु फुफ्फुसों में चला जाता है। फुफ्फुसों में रक्त का शुद्धिकरण होता है, यानी कार्बन-डाई-ऑक्साइड से भरे सिलेन्डर खाली हो जाते हैं और फुफ्फुस उनमें जीवन-उर्जा से परिपूर्ण प्राणवायु (ऑक्सीजन) भर देते है। प्राणवायु में उर्जा की इतनी आभा और चमक होती है कि इनसे भरे सिलेन्डर उजले और लाल दिखाई देते हैं। इन प्राणवायु से भरे सिलेन्डरों के कारण ही रक्त लाल दिखाई देता है। अब रक्त प्राणवायु से भरे चमकते लाल सिलेन्डर लेकर खुशी-खुशी बांये आलिन्द में पहुचाता है। जब बाँये निलय का विस्तारण होता है तो माइट्रल वाल्व खुल जाता है और रक्त बाँये निलय में भर जाता है। इसके बाद बाँया निलय एक शक्तिशाली आकुंचन करता है, जो माइट्रल वाल्व को बन्द करता है तथा एओर्टिक वाल्व को खोलता है और बलपूर्वक चमकता लाल रक्त महाधमनी द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों को पम्प हो जाता है।

हृदय का परसनल इलेक्ट्रिसिटी जनरेशन और ट्रांसमीशन सिस्टम

हृदय हर पहलू में आत्मनिर्भर तथा खुदगर्ज हैं और अपनी सारी कार्य प्रणाली और गति का नियंत्रण भी खुद ही करता है। विदित रहे कि किसी भी पेशी का आकुंचन तभी होता है जब उसे कोई विद्युत-आवेश (Electric Signal) प्रेरणा या आदेश दे। हृदय को शरीर में रक्त-संचार करने के लिए धौंकनी की तरह अपनी माँस-पेशियों का लयबद्ध आकुंचन और विस्तारण करना पड़ता है। इसके लिए यह अपना खुद का विद्युत उत्पादक और प्रसारण तंत्र रखता है, जो इसकी पेशियों के आकुंचन के लिये विद्युत-आवेश पैदा करता है। इस तंत्र का पहला संभाग साइनोएट्रियल एस.ए. नोड है, यह एक प्राकृतिक पेसमेकर है जो हृदय के आकुंचन की गति और बल सुनिश्चित करता है और इसके लिये विद्युत आवेश पैदा करता है। एस.ए. नोड से विद्युत आवेश दोनो आलिन्दों में फैल जाते हैं, जिससे आलिन्दों का आकुंचन होता है। एस.ए. नोड आलिन्दों में होता हुआ विद्युत आवेश एक अन्य संभाग एक्ट्रियोवेन्ट्रीकुलर ए.वी. नोड को जाता है, यह एक रिले की तरह कार्य करता है और आवेश को लगभग 0.1 सैकण्ड तक रोक कर (इस बीच आलिन्दों के आकुंचन से रक्त निलय में भर जाता है) एट्रियो-वेन्ट्रिकुलर बंडल में भेजता है। एट्रियो-वेन्ट्रिकुलर बंडल AV Bundle दोनों निलय के बीच के सेप्टम (Interventricular Septum) में बाँये और दाँये बंडल ब्राँच (LBB और RBB) विभाजित होकर परकंजी फाइबर्स द्वारा विद्युत आवेश दोनों निलय को प्रेषित करता है । अब रक्त से भर चुके निलय आकुंचन कर रक्त को हृदय से बाहर पम्प कर देते हैं। इस तरह हृदय की एक धड़कन, जिसकी अवधि 0.8 सैकण्ड होती है, संपूर्ण होती है।







डायबिटीज के रोगियों में हृदय रोग

मधुमेह के रोगी में हृदय रोग होना सामान्य बात है। अमरीकी हृदय संगठन के अनुसार डायबिटीज के रोगियों में दो तिहाई से तीन चौथाई मृत्यु हृदय रोगों से होती है। डायबिटीज के रोगी में यदि उच्च रक्तचाप, धूम्रपान, LDL कोलेस्ट्रोल ज्यादा होना और माता-पिता को कम उम्र में ही दिल कि बीमारी होना जैसे जोखिम घटक विद्यमान हों तो हृदय रोग होने और उससे मृत्यु होने की संभावना और बढ़ जाती है। एक अध्ययन के मुताबिक डायबिटीज के रोगी को हृदय रोग से मरने का जोखिम सामान्य व्यक्ति से 5 गुना ज्यादा होता है। हृदय रोग विशेषज्ञ कहते हैं कि डायबिटीज के रोगी में हृदय रोग के जोखिम घटकों का उपचार उतनी ही सतर्कता से करें, जितना किसी रोगी का हृदयाघात के बाद किया जाता है।

मधुमेह में हृदय तीन प्रकार की निकृतियां हो सकती हैं।

1. कोरोनरी हृदय धमनियों में ऐथेरोस्क्लिरोसिस रोग

2. ऑटोनोमिक न्यूरोपैथी जनित समस्याएँ

3. कॉर्डियोमायोपैथी

ऐथेरोस्क्लिरोसिस हृदयाघात का मुख्य कारण है। आटोनोमिक न्यूरोपैथी होने के कारण अचानक मृत्यु का होना, हृदय-गति का असाधारण रूप से बढ़ना, खड़े होने के पर रक्तचाप का गिरना, हृदयाघात होने पर दर्द का न होना जैसी जटिलताएं होती हैं। कारडियोमायोपैथी होने से हृदय की पेशियां बढ़ (Hypertrophy) जाती हैं जो आगे चल कर हार्ट फेल्यर की समस्या पैदा कर देती है। हार्ट फेल्यर रोग में हृदय की पेशियां कमजोर हो जाती है जिस कारण वे शरीर में पर्याप्त रक्त प्रवाहित नहीं कर पाती है। इसके फलस्वरूप फेफड़ों में पानी का दबाव बढ़ जाता है या/और सांस लेने में तकलीफ होती है, शरीर के अन्य हिस्सों में भी पानी जमा हो जाता है जिसके कारण सूजन आ जाती है।

हृदय-धमनी रोग Coronary artery disease या अरक्तता हृदय ischemic heart disease रोग

हृदय-धमनी रोग Coronary artery disease या अरक्तता हृदय ischemic heart disease रोग में मुख्य रोगजनकता धमनियों का कड़ापन या ऐथेरोस्क्लिरोसिस (Atherosclerosis) है। ऐथेरोस्क्लिरोसिस में हृदय की धमनियों की आन्तरिक सतह में वसा, कॉलेस्टेरोल और अन्य कोशिकीय उत्सर्जी तत्वों जमाव हो जाता है, जिसके कारण धमनियाँ अवरुद्ध होने लगती हैं और हृदय को पर्याप्त रक्त नहीं पहुँच पाता है। ऐथेरोस्क्लिरोसिस की रोगजनकता में कुछ महत्वपूर्ण पहलू हैं जिन पर चर्चा आवश्यक है।

आजकल हृदयरोग विशेषज्ञों ने ऐक्यूट कोरोनरी सिन्ड्रोम नाम का एक नया रोग-समूह परिभाषित किया है जिसमें निम्न तीन रोगों को शामिल किया है।

1- एस-टी सेगमेन्ट एलीवेशन मायोकार्डियल इनफार्कशन (STEMI) - वह हृदय-रोगगलन जिसमें एस-टी सेगमेन्ट का उठाव होता है।

2- नोन एस-टी सेगमेन्ट एलीवेशन मायोकार्डियल इनफार्कशन (NSTEMI) - इसमें एस-टी सेगमेन्ट का उठाव नहीं होता है।

3- अस्थिर एन्जाइना (Unstable Angina)

हृदय-धमनी रोग या अरक्तता हृदयरोग की रोगजनकता

प्रदाह

अब तो मुख्य धारा के चिकित्सक और वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि ट्राँस फैट और रिफाइन्ड तेलों के प्रयोग और हमारे आहार में ओमेगा-3 तथा ओमेगा-6 के अनुपात में आये परिवर्तन (सामान्यतः यह यह अनुपात 1:2 होना चाहिये जो आहारशैली में आये बदलाव के कारण आजकल 1:40, 1:80 या 1:160 हो गया है) के कारण शरीर में दूसरी श्रंखला के प्रदाहक प्रोसिटाग्लेन्डिन्स (Series 2 Inflamatory Prostaglandins) बनते हैं, जो धमनियों की आँतरिक सतह को प्रदाहग्रस्त कर क्षति पहुँचाते हैं और यहीं से ऐथेरोस्क्लिरोसिस की शुरूआत होती है। कॉलेस्ट्रोल क्षतिग्रस्त धमनी की मरम्मत हेतु इसकी आँतरिक सतह पर वसा, कॉलेस्ट्रोल, बिम्बाणु और अन्य तत्वों का लेप कर देता है।

कॉलेस्ट्रोल

ऐथेरोस्क्लिरोसिस की रोगजनकता में कॉलेस्ट्रोल और उसके वाहन लाइपोप्रोटीन अहम भूमिका निभाते हैं। कॉलेस्ट्रोल हमारे शरीर की हर कोशिका में पाया जाता है। रक्त में घुलनशील न होने के कारण यह अपने परिवहन के लिए एक विशेष प्रकार के गोल अणु लाइपोप्रोटीन को वाहन के रूप में प्रयोग करता है। लेकिन कॉलेस्ट्रोल द्वारा धमनी की आँतरिक सतह पर किया गया रक्षात्मक लेप कभी-कभी उखड़ जाता है, जिससे वहाँ थक्का बन जाता है तथा धमनी अवरुद्ध हो जाती है और हार्ट अटेक हो जाता है। इस तरह आपने देखा कि भलाई करने पर भी यह मुन्ना (कॉलेस्ट्रोल) दशकों से बदनामी की ज़िल्लत झेल रहा है। जब कि ऐथेरोस्क्लिरोसिस का असली कारण तो ट्राँसफैट और ओमेगा-3 तथा ओमेगा-6 के अनुपात का बिगड़ना है जिससे प्रदाहक (Inflamatory) प्रोसिटाग्लेन्डिन्स बनते हैं। आज मैं इसे “ट्राँसफैट सिन्ड्रोम” का नाम देता हूँ। ऐथेरोस्क्लिरोसिस तो इस ट्राँसफैट सिन्ड्रोम के कई लक्षणों में से एक लक्षण है।

ऑक्सीडेशन

ऐथेरोस्क्लिरोसिस की रोगजनकता (Pathogenesis) में ऑक्सीडेशन भी विशेष महत्व रखता है। ऑक्सीडेशन घातक मुक्त-कणों के आक्रमण से होने वाली एक विध्वँसक व प्रदाहक प्रक्रिया है। शरीर में बाहरी या आँतरिक स्रोत से मुक्त-कणों का आक्रमण होता रहता है जिन्हें हमारी रक्षा-प्रणाली नष्ट करती रहती है, यह क्रिया शरीर में चलती रहती है और संतुलन बना रहता है। लेकिन मुक्त-कणों में अत्यधिक वृद्धि होने पर शरीर में प्रदाहक गतिविधियाँ बढ़ जाती हैं।

धमनियों में अवरोध होना

इस तरह हृदय की धमनियाँ ऐथेरोस्क्लिरोसिस के कारण कड़ी और संकीर्ण हो जाती हैं, कालान्तर में इनका अस्थिकरण तक हो जाता है। ज्यों ज्यों धमनियों की संकीर्णता बढ़ती है, रक्त-प्रवाह कम होता है और हृदय की पेशियों को ऑक्सीजन युक्त रक्त की आपूर्ति भी कम होने लगती है। इस तरह हृदय की पेशियाँ, जो जिन्दगी भर बिना थके और बिना रुके निरन्तर कार्य करती हैं, अरक्तता ischemia के कारण कमजोर या रुग्ण होने लगती हैं। इन कड़ी और संकीर्ण धमनियों के चोट-ग्रस्त होने की संभावना भी रहती है।

अन्तिम स्थिति हृदय-रोधगलन heart attack

हृदय-अवरोधगलन निम्न दो में से एक या दोनों स्थितियों में होता है।

• धमनी पूरी तरह अवरुद्ध हो जाये और अरक्तता के कारण प्रभावित हृदय पेशियाँ मृत होने लगे।

• धमनी पर लगे लेप में दरार पड़ने या टूट जाने पर बिम्बाणु इस क्षतिग्रस्त प्लॉक plaque पर रक्त का थक्का बना देते हैं। यदि यह थक्का धमनी को पूरी तरह अवरुद्ध कर दे तो होर्ट अटेक हो जाता है।

हृदय-धमनी रोग के जोखिम घटक

हृदय-धमनी रोग अमेरिका में मृत्यु का सबसे मुख्य कारण है। पिछले कुछ दशकों में धूम्रपान में आई कमी और आहारशैली में आये थोड़े सुधार के कारण वहाँ इसकी व्यापकता कम हुई है, जो पुनः स्थिर हो गई है (शायद लोगों में मोटापा बढ़ने के कारण)। लेकिन हमारे यहाँ गंगा उलटी बह रही है। हृदय-धमनी रोग की व्यापकता साल दर साल बढ़ती ही जा रही है।

उम्र – उम्र बढ़ने के साथ हृदय-धमनी रोग का जोखिम भी बढ़ता है। इससे मरने वाले 85% रोगी 65 वर्ष से बड़े होते हैं।

लिंग – वैसे तो इस रोग का जोखिम स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में ज्यादा होता है। परन्तु रजोनिवृत्ति के बाद यह आँकड़ा उल्टा हो जाता है। जी हाँ रजोनिवृत्ति के बाद स्त्रियों में इस रोग का जोखिम ज्यादा रहता है।

वंशानुगत – जिन लोगों के माता-पिता या अन्य पूर्वज रक्तचाप या हृदयरोग से पीड़ित रहे हों, उन्हें इस रोग की संभावना ज्यादा रहती है।

जीवनशैली संबंधी घटक-

धूम्रपान – धूम्रपान हृदयरोगों का सबसे बड़ा जोखिम घटक है। धूम्रपान से रक्तचाप व एल.डी.एल. कॉलेस्ट्रोल बढ़ता है, बिंबाणुओं का चिपचिपापन बढ़ता है और धमनियों में थक्का बनने की संभावना बढ़ती है। हृदयरोग से मरने वाले रोगियों में से 20% रोगी धूम्रपान करते हैं। कम धूम्रपान करने या परोक्ष धूम्रपान करने वालों (धूम्रपान करने वालों के सानिध्य में रहने वाले लोगों) को भी इस रोग का जोखिम काफी रहता है।

मदिरापान आहारशास्त्री कहते हैं कि सिमित मात्रा में मदिरा लेना (सप्ताह में दो-चार बार 140 एम.एल. रेड वाइन या 340 एम.एल. बियर या 40 एम.एल. हार्ड ड्रिंक) तो हितकारी है एच.डी.एल. कॉलेस्ट्रोल भी बढ़ाती है। परन्तु इससे ज्यादा मात्रा में मदिरा सेवन करना हृदय के लिए घातक सिद्ध होता है।

आहार - अधिक नमक और खराब कॉलेस्ट्रोल युक्त आहार (तले हुए व्यंजन, फास्ट फूड, जंक फूड, कचौड़ियाँ, समोसे, छोले-भटूरे आदि) हृदयरोगों को दावत देता है।

शारीरिक निष्क्रियता - व्यायाम और शारीरिक सक्रियता हृदय के लिए लाभप्रद है, मोटापे से बचाती है और खराब कॉलेस्ट्रोल को कम करती है। निष्क्रिय जीवन जीने वाले लोगों में हृदय-धमनी रोग होने का जोखिम दोगुना होता है।

स्थूलता और चयापचय सिन्ड्रोम (Metabolic Syndrome)

उदर क्षेत्र में वसा का जमाव हृदयरोग का जोखिम बढ़ाता है। साथ में स्थूलता रक्तचाप और डायबिटीज का जोखिम भी बढ़ाती है। चयापचय सिन्ड्रोम डायबिटीज होने के पहले का एक बहुआयामी रोग-समूह है जिसमें सामान्यतः निम्न लक्षण हो सकते हैं। 1- सेबाकार स्थूलता 2- एच.डी.एल. कॉलेस्ट्रोल कम होना 3- ट्राइग्लीसराइड व एल.डी.एल. कॉलेस्ट्रोल ज्यादा होना 4- उच्च रक्तचाप 5- इन्सुलिन प्रतिशोध। यह हृदय-धमनी रोग की जोखिम भी बढ़ाता है।

कॉलेस्ट्रोल और लाइपोप्रोटीन्स की विकृतियाँ

एल.डी.एल. कॉलेस्ट्रोल और ट्राइग्लीसराइड हृदय के लिए खलनायक हैं और हृदय-धमनी रोग का जोखिम बढ़ाते हैं तो दूसरी ओर एच.डी.एल. कॉलेस्ट्रोल हृदय को हृदय-धमनी रोग से सुरक्षा देकर नायक की भूमिका निभाते हैं। सामान्यतः रक्त में लिपिड-प्रोफाइल की जाँच की जाती है जिसमें कॉलेस्ट्रोल, LDL, HDL और ट्राइग्लीसराइड आदि सभी टेस्ट शामिल हैं। LDL और HDL के अनुपात से हृदयरोग के जोखिम का निर्धारण किया जाता है।

उच्च रक्तचाप और मधुमेह

उच्च रक्तचाप हृदय-धमनी रोग का प्रमुख कारण माना जाता है। मधुमेह में यदि रक्त-शर्करा नियंत्रित न रखी जाये तो उच्च रक्तचाप, कॉलेस्ट्रोल विकृतियाँ, नाड़ी-रोग आदि का जोखिम बढ़ता है और ये सब मिल कर हृदय-धमनी रोग की संभावना बढ़ा देते हैं।

परिधीय धमनी रोग

यदि हाथ-पैरों की धमनियाँ ऐथेरोस्क्लिरोसिस से प्रभावित हो जाये तो परिधीय धमनी-रोग हो जाता है। चूँकि हृदय-धमनी रोग और परिधीय धमनी-रोग के जोखिम घटक एक ही हैं, इसलिए जो परिधीय धमनी रोग से ग्रसित होते हैं उन्हें हृदय-धमनी रोग की संभावना रहती ही है।

अवसाद

अवसाद भी हृदय-धमनी रोग का जोखिम घटक है। कई शोधकर्ता मानते हैं कि अवसाद हृदय पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

होमोसिस्टीन और विटामिन बी की कमी

शरीर में फोलेट, विटामिन बी-6 और बी-12 की कमी होने पर रक्त में होमोसिस्टीन नामक अमाइनो एसिड का स्तर बढ़ जाता है। विटामिन बी की कमी होने पर हृदय-धमनी रोग का जोखिम बढ़ जाता है। होमोसिस्टीन का स्तर हृदय-धमनी रोग में मार्कर का कार्य करता है।

सी-रिएक्टिव प्रोटीन

सी-रिएक्टिव प्रोटीन बढ़ने का मतलब है कि शरीर में प्रदाह की उपस्थिति, जिलका मतलब है कि भविष्य में हृदय-धमनीरोग होने की संभावना ज्यादा है।

क्लेमाइडिया निमोनिया और साइटोमेगालो विषाणु

कई बार हृदय-धमनी में बने ऐथेरोस्क्लिरोसिस प्लॉक में उपरोक्त जीवाणु पाये गये जिससे यह सन्देह जताया जा रहा है कि इन जीवाणुओं के संक्रमण से भी हृदय-धमनीरोग हो सकता है।

स्थिर एन्जाइना या Stable Angina (Angina Pectoris)

एन्जाइना लेटिन शब्द angere यानी दम घुटना और pectoral यानी छाती से बना है। ज्यादातर यह रोग 30 साल की उम्र से ऊपर के व्यक्तियों को होते हैं।

अस्थिर ऐन्जाइना (Unstable Angina) एक गम्भीर रोग है, यह एक प्रकार से स्थिर ऐन्जाइना और हार्ट अटेक के बीच की स्थिति है। इसमें दर्द विश्राम की अवस्था में भी होता है। कभी-कभी रोगी दर्द के कारण अचानक नींद से जग जाता है। यदि रोगी दर्द से मूर्छित हो जाये, किसी को हल्के से परीश्रम जैसे थोड़ी सी सीढ़ियाँ चढ़ने से ही दर्द हो जाये या दो महीने के अन्तराल में छाती में दर्द के दौरे जल्दी-जल्दी पड़ने लगे और दवाइयाँ का असर भी कम होने लगे तो समझ लीजिये कि आपको स्थिर ऐन्जाइना हो गया है।

लक्षण

• एन्जाइना रोग के होने से पहले रोगी को अपनी छाती के मध्य या बाँई तरफ दबाव, भारीपन, जकड़न, जलन या घुटन की अनुभूति, सांस लेने में परेशानी और बैचेनी जैसे लक्षण प्रकट होते हैं और उसके बाद दर्द शुरू हो जाता है। रोगी को ऐसा महसूस होता है जैसे कि उसे दिल का दौरा पड़ने वाला है। दर्द पेट के ऊपरी भाग, गर्दन, जबड़े या कंधे में भी अनुभव किया जा सकता है। यह दर्द सामान्यतः एक या दो मिनट रहता है परन्तु 10-15 मिनट भी रह सकता है। यह दर्द जीभ के नीचे हृदय-धमनी विस्तारक (आइसोर्ड्रिल) की गोली रखने से मिट जाता है।

• एन्जाइना रोग ज्यादा शारीरिक, मानसिक श्रम, भय, घबराहट, अधिक सर्दी लगने अथवा आवश्यकता से अधिक भोजन को खा लेने के कारण हो जाता है। ज्यादा धूम्रपान करने से या उच्च रक्तचाप (हाई ब्लडप्रेशर) रोग के कारण भी एन्जाइमा का रोग हो सकता है।

• एन्जाइना हृदय की पेशियों में रक्त की पर्याप्त आपूर्ति नहीं होने के कारण होता है। जब आप कोई श्रम करते हैं तो हृदय को अधिर रक्त को पंप करना पड़ता है इसलिए उसे रक्त आवश्यकता भी बढ़ जाती है। ऐथेरोस्क्लिरोसिस के कारण हृदय-धमनियाँ संकरी और कड़ी हो जाती हैं और हृदय को पर्याप्त रक्त प्रवाहित नहीं कर पाती हैं और हृदय अपनी यह व्यथा दर्द के रूप में हमारे सामने रखता है।

• एन्जाइना का दर्द हमें चेतावनी है कि हृदय-धमनी रोग का आगमन अपेक्षित है। दिल का दौरा भी कभी पड़ सकता है। हमें अभी से सतर्कता बरतना, जीवन शैली में सुधार लाना और समुचित उपचार करना जरूरी है। एन्जाइना को कभी भी हल्के में नहीं लेना चाहिये।

निदान

इसके निदान के लिए कोई विशेष परीक्षण नहीं हैं। ई.सी.जी. भी सामान्य रहती है, पर बाद में अरक्तता के कुछ संकेत मिल सकते हैं। लिपिड और थायरोइड के टेस्ट करवाने चाहिये। ट्रेड मिल, थेलियम स्केन और एन्जियोग्राफी से कोरोनरी-धमनियों की स्थिति का जायजा हो जाता है।

उपचार

नाइट्रेट्स

जब एन्जाइना का दौरा पड़े तो तुरन्त विश्राम करना चाहिये और हृदय-धमनी विस्तारक (आइसोर्ड्रिल) की गोली रख लेना चाहिये। इससे दर्द मिट जाता है। एन्जाइना के रोगी को आइसोर्ड्रिल की गोली हमेशा अपने साथ रखना चाहिये। नाइट्रोग्लीसरीन हृदय की धमनियों को फैलाते हैं, जिससे हृदय को ज्यादा रक्त मिलता है। आजकल इसके स्प्रे और त्वचा पर चिपकाने हेतु चकत्ते भी मिलते हैं। दीर्घकालीन नाइट्रोग्लीसरीन नियमित देने से एन्जाइना के दौरे कम पड़ते हैं।

बीटाब्लॉकर

बीटाब्लॉकर हृदयगति और रक्तचाप कम करते हैं ताकि हृदय की पेशियों में रक्त की माँग कम हो अतः एन्जाइना के लक्षणों में राहत देते हैं। अनुसंधानों से यह स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि ये हमें हार्ट-अटेक और अचानक मृत्यु से बचाते हैं।

केल्शियम चेनल ब्लॉकर (सी.सी.बी.) हृदय की पेशियों और रक्त-वाहिकाओं में केल्शियम के प्रवेश-द्वार को अवरुद्ध करते हैं, हृदय-धमनी विस्तारक हैं, हृदय में रक्त की आवक बढ़ाते हैं, रक्तचाप और हृदय गति कम करते हैं। इस तरह हृदय को कम कार्य करना पड़ता है और इस तरह एन्जाइना का दर्द दूर करती है।

कैलशियम चेनल ब्लॉकर CCBs

कैलशियम चेनल ब्लॉकर हृदय और रक्त-वाहिकाओं की स्निग्ध पेशी-कोशिकाओं में स्थित कैलशियम चेनल्स में केलशियम की आवाजाही को बाधित करते हैं। जिससे कोशिकाओं में कैलशियम की मात्रा कम हो जाती है अतः हृदय की पेशियों की आकुंचन-शक्ति (cardiac contractility) भी कम हो जाती है और रक्त-वाहिकाओं का विस्तारण (vasodilation) होता है। फलस्वरूप रक्तचाप कम होता है। यह कैलशियम चेनल ब्लॉकर का नेगेटिव आइनोट्रोपिक प्रभाव है। इसलिए इन्हें कार्डियोमायोपैथी के रोगियों को नहीं देना चाहिए। कुछ CCBs हृदय मंट विद्युत प्रवाह को भी बाधित करते हैं जिसके फलस्वरूप हृदयगति कम होती है। यह CCBs का नेगेटिव क्रोनोट्रोपिक (हृदयगति कम करना) प्रभाव है, इस कारण इनका प्रयोग एट्रीयल फिब्रिलेशन और फ्लटर किया जाता है। चूंकि CCBs रक्तचाप कम करते हैं, कई बार बेरोरिसेप्टर रिफ्लेक्स के कारण रक्तचाप और हृदयगति बढ़ जाती है, जिसे प्रभावशून्य करने के लिए साथ में बीटाब्लॉकर भी दिये जाते है।

रक्तचाप और हृदयगति कम होने से हृदय की ऑक्सिजन की जरूरत कम होती है अतः हृदय पर कार्य का दबाव कम होता है, इसलिए ये एन्जाइना में दिये जाते हैं। मुख्य रूप से एमलोडिपिन (डाईहाइड्रोपाइरिडिन), डिलटिएजाम और वेरापेमिल प्रयोग किये जाते हैं।

ए.सी.ई. इन्हिबीटर्स

ए.सी.ई. इन्हिबीटर्स धमनियों का विस्तारण करते हैं और हृदय के रक्त की आवक बढ़ाते हैं। डायबिटीज और कमजोर हृदय के लिए बहुत उपयुक्त हैं।

आइवाब्रेडीन

यदि बीटाब्लॉकर देने में कोई विवशता हो और हृदयगति भी ज्यादा हो तो आजकल नई दवा आइवाब्रेडीन (5 mg सुबह शाम) दी जाती है।

रेनोजेलीन

यदि एन्जाइना के दर्द में नाइट्रेट, बीटाब्लॉकर, ACE इन्हिबिटर्स और CCBs आदि काम न कर पायें तो रेनोजेलीन दी जाती है। यह हृदय-कोशिका में लेट सोडियम करेन्ट को अवरुद्ध करता है, जिससे सोडियम पर निर्भर केलशियम चेनल को प्रभावित करता है। इस तरह यह परोक्ष तरीके से केलशियम ओवरलोड से बचाता है। अन्य दवाईयों के विपरीत यह रक्तचाप और हृदयगति को प्रभावित नहीं करती है। इसे अक्सर नाइट्रेट या बीटाब्लॉकर्स के साथ दिया जाता है। इसकी मात्रा 500-1000 मि.ग्रा. प्रतिदिन है।

निकोरान्डिल

निकोरान्डिल हृदय और धमनियों में पोटेशियम-चेनल्स को खोलता है, जिससे पेशियों का विस्तारण होता है और परिधीय वाहिकीय प्रतिशोध कम होता है फलस्वरूप हृदय आसानी से रक्त पंप करता है। यह हृदय की धमनियों का भी विस्तारण करता है, जिससे हृदय को ज्यादा रक्त (यानी ज्यादा ऑक्सीजन) मिलता है। यह शिराओं का भी विस्तारण करता है, जिससे हृदय को रक्त कम पहुँचता है। इस तरह यह एन्जाइना में बहुत लाभदायक है।

एस्पिरिन

एस्पिरिन और कॉलेस्ट्रोल कम करने की दवाइयाँ भी दी जानी चाहिये।


 


दिल का दौरा या हृदय रोधगलन M.I. (Heart Attack या Myocardial Infarction)







दिल का दौरा या हृदय-रोधगलन M.I. (Heart Attack या Myocardial Infarction) एक प्राणलेवा रोग है जिसमें हृदय की पेशियाँ उसकी धमनियों में थक्का बनने के कारण रक्त की आपूर्ति अचानक बाधित होने से मृत होने लगती है। धमनी में आये अचानक अवरोध के कारण हृदय की पेशियों को ऑक्सीजन नहीं मिल पाती है और वे मृत होने लगती हैं। इस तरह हृदय की धमनियाँ शरीर को निर्बाध रक्त संचार करने में असमर्थ पाती हैं, इसलिये रोगी की छाती को कुरेद-कुरेद कर (जिससे छाती में तीव्र दर्द होता है) उसे चेतावनी देती है कि हे मानव तेरी जान खतरे में है, यमराज भैंसा लेकर द्वार पर आ बैठा है, तू बिना एक पल गँवाये जीवन का आखिरी युद्ध लड़ने रणभूमि (अस्पताल की गहन चिकित्सा इकाई) पहुँच।

यदि हृदय में रक्त-प्रवाह 30-40 मिनट में पुनः स्थापित नहीं किया जा सके तो अगले 6-8 घन्टे में हृदय की पेशियां स्थाई रूप से मृत या क्षतिग्रस्त हो जाती हैं और दिल का दौरा सम्पूर्ण हो जाता है। अन्ततः इन पेशियों के घाव भरते हैं और मृत पेशियों का स्थान स्कार टिश्यू ले लेता है।

भारत में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण दिल का दौरा है। अमेरिका में प्रति वर्ष दस लाख लोगों को दिल का दौरा पड़ता है, जिनमे से आधों की मृत्यु हो जाती है। ऐसे कयास लगाये जा रहे हैं कि शीघ्र ही हमारा देश इस रोग के लिए भी विश्व की राजधानी बन जायेगा।

लक्षण

अधिकतर दिल के दौरे सुबह चार से दस बजे के बीच ही पड़ते हैं। शायद इसलिए कि इस दौरान एडरिनेलीन का स्राव ज्यादा होता है जिसके प्रभाव से धमनियों के प्लाक आसानी से टूटते हैं। इस रोग का मुख्य लक्षण छाती में तीव्र दर्द या दबाव होना है। लेकिन रोगी के कई तरह के अन्य लक्षण भी हो सकते हैं। जैसे

• जबड़े, दाँत या सर में दर्द होना।

• श्वास लेने में कष्ट होना।

• जी धबराना, उबकाई या उलटी आना, उदर के ऊपरी और मध्य में अम्लता जैसा दर्द।

• पसीना आना, चेहरा सफेद पड़ जाना, बैचेनी, छाती में जलन या अपच होना, पीठ के उपरी भाग में दर्द होना।

• डायन डायबिटीज बड़ी धूर्त है दिल के दौरे को भी डरा-धमका कर बिना शोर मचाये, चुपचाप आक्रमण करने को बाध्य करती है। यह एक बुरी स्थिति है इसलिए डायबिटीज के रोगियों को बहुत सतर्क रहना चाहिये।

यह रोग एक  आपातकालीन स्थिति  है,    जिसमें 
बिना वक्त गँवाये  तुरन्त  किसी अच्छे संस्थान में उपचार हेतु पहुँचना चाहिये। कई बार जब घबराहट, बैचेनी, अपच, अम्लता जैसे मामूली लक्षण होते हैं, ऐसी स्थिति में अम्लता की गोली या कोई घरेलू उपचार कर संतुष्ट होकर बैठ जाना जानलेवा साबित हो सकता है। मधुमेह के रोगियों को विशेष सतर्कता रखना जरूरी है। हृदय-रोधगलन में रोगी की कभी भी वेन्ट्रिकल फिब्रिलेशन, हृदय के फटने या अन्य प्राणलेवा स्थिति से मृत्यु हो सकती है।

निदान

दिल के दौरे में जब लक्षण मामूली होते हैं तब कई बार दिल का दौरा होने का सन्देह नहीं होता है और उसके परीक्षण नहीं हो पाते हैं। इसलिए निदान का पहला सूत्र यही है कि इसके मामूली लक्षणों की भी अनदेखी न करें।

ई.सी.जी.

हृदय में एक विशिष्ट विद्युत संयंत्र होता है जो हृदय के विभिन्न सम्भागों को संकुचन और विस्तारण द्वारा रक्त संचारित करने लिए विद्युत सन्देशों के माध्यम से निरन्तर आदेश प्रसारित करता रहता है। इन्ही विद्युत सन्देशों के चित्रण को ई.सी.जी. या इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम कहते हैं। ई.सी.जी. विद्युत सन्देशों को तरंग के रूप में प्रदर्शित करता है। तरंग का पहला भाग P वेव एट्रियम के संकुचन को प्रतिबिन्बित करती है, QRS वेव्ज वेन्ट्रिकल्स के संकुचन को प्रतिबिन्बित करती हैं और T वेव वेन्ट्रिकल्स के पुनर्ध्रुवीकरण repolarisation को प्रदर्शित करती है। हार्ट अटेक होने पर इन विद्युत सन्देशों के प्रवाह में बदलाव होना स्वाभाविक है और विशेषज्ञ रोगी के ई.सी.जी. को देख कर हृदय के क्षतिग्रस्त क्षेत्रों को चिन्हित कर लेते हैं। हृदय रोधगलन M.I.में मुख्य परिवर्तन तरंग के ST उपभाग का उँचा होना और गहरी व चौड़ी Q वेव होना या उलटी T वेव होना हैं।

रक्त के परीक्षण

दिल का दौरा पड़ने पर हृदय की क्षतिग्रस्त पेशियाँ कुछ एन्जाइम जैसे क्रियेटिनीन फोस्फोकाइनेज का उपघटक एम.बी. (CPK-MB), ट्रोपोनिन I और T, मायोग्लोबिन आदि रक्त में छोड़ देती हैं। रक्त में इनके स्तर का क्रमिक परीक्षण निदान और फलानुमान के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। ट्रोपोनिन का स्तर दौरे के 3-12 घन्टे बाद बढ़ना शुरू होता है, 24-48 घन्टे बाद चरम सीमा पर होता है और 5-14 दिन में सामान्य हो जाता है। CPK के तीन उपघटक होते हैं, BB मस्तिष्क में, MM सामान्य पेशियों में और MB हृदय की पेशियों में होता है। CPK के MB उपघटक का स्तर दौरे के 4-8 घन्टे बाद बढ़ना शुरू होता है, 10-24 घन्टे बाद चरम सीमा पर होता है और 2-3 दिन में सामान्य हो जाता है।

एन्जियोग्राफी

यह परीक्षण हृदय रोधगलन M.I. या हृदय की धमनियों में अवरोध के संकेत मिलने पर हृदय की धमनियों की संरचना, रक्त-प्रवाह और अवरोध की स्थिति का अवलोकन करने हेतु किया जाता है। एन्जियोग्राफी एक विशेष एक्स-रे मशीन द्वारा की जाती है। इस परीक्षण में कलाई या जाँघ की धमनी में एक महीन नलिका (केथेटर) डाली जाती है जिसे हृदय की धमनियों तक पहुँचा कर उसमें एक अपारदर्शी डाई (एक्सरे की दृष्टि से) प्रवाहित कर दी जाती है और मशीन द्वारा विभिन्न कोणों से एक्सरे ले लिया जाता है। इस एन्जियोग्राम से हृदय-धमनियों की पूरी संरचना और उनमें अवरोध की स्थिति का सही आंकलन हो जाता है।

कम्प्यूट्राइज्ड टोमोग्राफी (CT)

उपचार

अस्पताल पूर्व-चिकित्सा

दिल का दौरा (छाती में दर्द होना) पड़ने पर बिना समय नष्ट किये रोगी का उपचार हो जाना चाहिये। जब तक सही निदान हो तब तक उसे हार्ट अटेक ही मानना चाहिये। थोड़ा सा विलम्ब भी जानलेवा साबित हो सकता है। छाती में दर्द होने पर रोगी को 300 मिलिग्राम घुलनशील एस्पिरिन की गोली को पीस कर पानी में घोलें और पिला दें। साथ ही यदि उपलब्ध हो तो 300 मिलिग्राम क्लोपिडोग्रेल, 80 मिलिग्राम एटोरवास्टेटिन भी दे दें। आइसोर्डिल की एक गोली जीभ के नीचे रख दें। रोगी को तुरन्त किसी अच्छे अस्पताल पहुँचाना चाहिये, जहाँ हार्ट अटेक के उपचार की सारी सुविधायें उपलब्ध हो। ध्यान रखें कभी भी रोगी स्वयं वाहन चला कर अस्पताल नहीं जाये। बड़े शहरों में आजकल अच्छे अस्पताल सभी उच्चस्तरीय जीवन-रक्षक उपकरणों, दवाओं और अनुभवी चिकित्साकर्मी और डाक्टर्स से सुसज्जित चिकित्सा-वाहन (एम्बुलेन्स) रखते हैं। इनमें ई.सी.जी., ऑक्सीजन, वेन्टीलेटर, डीफिब्रीरिलेटर, दवाइयाँ, नर्सें और डाक्टर मौजूद रहते हैं। यदि उपलब्ध है तो रोगी को इसी चिकित्सा-वाहन के द्वारा अस्पताल पहुँचाना चाहिये, ताकि रोगी का विधिवत उपचार वाहन में ही शुरू हो जाये। अस्पताल को जितना जल्दी संभव हो, सूचित कर दिया जाना चाहिये ताकि रोगी के अस्पताल पहुँचते पहले ही उसके उपचार की तैयारी शुरू हो जाये और “द्वार से दवा की अवधि” या Door to Drug Time तथा “द्वार से हवा की अवधि” या Door to Balloon Time (रोगी के अस्पताल पहुँचने से एन्जियोप्लास्टी करने के बीच की अवधि) कम से कम रहे।

चिकित्सा-वाहन में निम्न उपचार दे दिया जाता है।

• यदि घर पर नहीं दी गई तो एस्पिरिन, क्लोपिडोग्रेल, एटोरवास्टेटिन और आइसोर्डिल दे दी जाती है। एस्पिरिन और क्लोपिडोग्रेल बिम्बाणुओं का चिपचिपापन कम करती हैं और थक्का बनने में अवरोध पैदा करती हैं।

• शिरा में केन्यूला, अंगुली में पल्स-ऑक्सीमीटर लगा दिया है और ई.सी.जी. कर दी जाती है।

• दर्द के लिए मार्फीन का इन्जेक्शन दे दिया जाता है तथा तनाव, अम्लता, घबराहट आदि के लिए इन्जेक्शन भी दे दिये जाते हैं।

• जैसे ही ई.सी.जी. द्वारा हृदय-रोधगलन M.I.की पुष्टि हो एलाक्सिम या अन्य थ्रोम्बोलाइटिक और हिपेरिन आदि भी दिये जा सकते हैं। यदि 90 मिनट के भीतर थ्रोम्बोलाइटिक्स दे दिये जाते हैं तो रोगी के बचने की संभावना बहुत बढ़ जाती है।

हार्ट अटेक में 65% रोगियों की मृत्यु पहले घन्टे में हो जाती है। इनमें से हम 60% को बचा सकते हैं यदि हम वेन्ट्रीकुलर फिब्रिलेशन होने पर डीफिब्रिलेटर या दवाओं से तुरन्त उपचार कर पायें। इसलिए ज्यों ही रोगी को वेन्ट्रीकुलर फिब्रिलेशन हो, बिना समय गँवाये तुरन्त उपचार किया जाता है।

अस्पताल में उपचार

अस्पताल पहुँचते ही रोगी को तुरन्त गहन चिकित्सा इकाई में स्थानान्तरित कर दिया जाता है और पूरी टोली अपने-अपने काम में जुट जाती है। हार्ट अटेक का उपचार निम्न पहलुओं पर केन्द्रित रहता है।

• हृदय का रक्त-संचार जितना जल्दी हो सके पुनरस्थापित करना और हृदय की पेशियों की क्षति न्यूनतम रखना।

• ऑक्सीजन की आपूर्ति और माँग के बीच सन्तुलन बनाये रखना।

• दर्द निवारण।

• दुष्प्रभावों की रोकथाम और उनका त्वरित उपचार।

सबसे पहले रोगी से पूछताछ, शारीरिक परीक्षण, ई.सी.जी., केन्यूला लगाना, जांच के लिए रक्त लेना, छाती का एक्स-रे, रोगी को कार्डियक मोनीटर पर रखना आदि कार्य कर लिए जाते हैं। पल्स-ऑक्सीमीटर ऑक्सीजन का स्तर 90% से कम बताये तो ऑक्सीजन शुरू कर दी जाती है, ताकि रक्त में ऑक्सीजन का स्तर अच्छा रहे। रोगी को छाती में दर्द हो तो 5 मिनट के अंतराल में आइसोर्डिल की दो अतिरिक्त गोलियाँ दे दी जाती हैं। मोर्फीन, फोर्टविन या नार्फिन का इन्जेक्शन दर्द के लिए दिया जाता है, दर्द न मिटे तो 5-15 मिनट बाद पुनः इन्जेक्शन दर्द दिया जाता है। सिस्टोलिक रक्तचाप 100-140 mm के बीच रखा जाता है। यदि हृदय गति कम हो तो 0.5 mg एट्रोपीन की सुई हर पाँच मिनट में दी जाती है ( कुल एट्रोपीन 2-4 mg तक दे सकते हैं)।

दूसरी ओर रोगी के ICU में पहुँचने के 10 मिनट के भीतर विशेषज्ञ ई.सी.जी., अन्य संकेतों एवम् उपलब्ध संसाधनों का अवलोकन कर निर्णय कर लेते हैं कि उसे थ्रोम्बोलाइज करना है या एन्जियोप्लास्टी करनी है। इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि “द्वार से दवा की अवधि” या Door to drug time 30 मिनट और “द्वार से हवा की अवधि” या Door to balloon time 90 मिनट से कम रखा जाये। सुक्रलफेट और रेनीटिन दी जाती है ताकि अम्लता और आमाशय में फोड़े न हों। रोगी को आराम करने की सलाह दी जाती है।

बीटाब्लॉकर

बीटाब्लॉकर का हार्ट अटेक के उपचार में बहुत महत्व है। यदि कोई विशेष वर्जना न हो तो दौरा पड़ने के 12 घन्टे के अंदर बीटाब्लॉकर्स शुरू कर दिये जाते हैं जिन्हें लम्बी अवधि तक जारी रखा जाता है। हृदय की पेशियों में बीटा-अभिग्राहक (Beta receptors) होते हैं जो एडरिनेलीन और नोरएडरिनेलीन नामक हार्मान्स के संपर्क में आकर हृदय की आकुंचन-शक्ति, गति और रक्तचाप बढ़ाते हैं। बीटाब्लॉकर्स इन अभिग्राहकों पर चिपक जाते हैं और उपरोक्त हार्मोन्स के हृदय पर होने वाले प्रभावों को बाधित या ब्लॉक कर देते हैं। इसतरह बीटाब्लॉकर्स हृदय हृदय-गति, हृदय की पेशियों (मायोकार्डियम) की आकुन्चन शक्ति और ऑक्सीजन की आवश्यकता को कम करते हैं, जिससे हृदय की पेशियों की क्षति न्यूनतम होती है। बीटाब्लॉकर्स वेन्ट्रीकुलर ऐरिद्मिया, हृदय रोधगलन M.I.की पुनरावृत्ति तथा बार-बार अरक्तता की संभावना को कम करते हैं और रोगी के जीवित रहने की संभावना बढ़ाते हैं। हृदयवात, हृदयगति कम होना और श्वासनली का संकुचन बीटाब्लॉकर्स के मुख्य कुप्रभाव हैं। मेटोप्रोलोल 15 मिलि ग्राम की मात्रा शिरा-पथ में धीरे-धीरे देने के बाद मुख द्वारा 200 मिलिग्राम/दिन दी जाती है। एटीनोलोल की 5-10 मिलि ग्राम/दिन शिरा में देने के बाद मुख द्वारा 100 मिलि ग्राम/दिन देते हैं।

ए.सी.ई.इन्हिबीटर्स

यदि रोगी का रक्तचाप सामान्य रहे तो पहले 24 घंटे में ही ए.सी.ई.इन्हिबीटर्स शुरू कर दिये जाते हैं और लम्बे समय तक दिये जाते हैं। ये रक्त में एन्जियोटेन्सिन नामक एन्जाइम को प्रभावशून्य कर रक्तवाहिकाओं के विस्तारण द्वारा रक्तचाप कम करके हृदय पर बोझ कम करते हैं। इसके अलावा ए.सी.ई.इन्हिबीटर्स का हृदय पर सीधा सुरक्षात्मक प्रभाव भी होता है। इस तरह ये बीटाब्लॉकर्स के साथ मिल कर ऑक्सीजन की आपूर्ति और माँग के बीच सन्तुलन बनाते हैं।


नाइट्रेट्स

हार्ट अटेक M.I. के रोगियों में नाइट्रेट्स का प्रयोग बहुत आवश्यक है, खासतौर पर जिन रोगियों में हृदयवात (congestive heart failure), पल्मोनरी ऐडीमा, सतत अरक्तता (Persistent Ischemia), उच्च रक्तचाप या बाएं निलय के अग्र भाग में बड़े हृदय रोधगलन (Large anterior wall M.I.) होता है। नाइट्रेट्स चयापचित हो कर नाइट्रिक-ऑक्साइड बनाते हैं, जो वाहिकाओं का विस्तारण करते हैं, हृदय की ऑक्सीजन की जरूरत कम करते हैं, रक्तचाप कम करते हैं, फेफड़ों की वाहिकाओं और वेन्ट्रिकल में रक्त का दबाव कम करते हैं, बिम्बाणुओं का चिपचिपापन कम करते हैं, कोरोनरी-धमनियों में रक्त-संचार बढ़ाते हैं और इनफार्क्ट का आकार छोटा करते हैं। नाइट्रोजेक्ट के नाम से मिलता है, यह 200 mcg/mL (50 mg मात्रा 250 mL सेलाइन में मिला कर) और 400 mcg/mL की साँद्रता में मिलता है। इसे शिरा-पथ में इन्फ्यूजन पंप द्वारा 10-20 mcg/minute से देना शुरू करते हैं। फिर वाँछित लाभ मिलने तक 10-20 mcg/minute हर 5 मिनट में बढ़ाते हैं। सामान्यतः अधिकतम मात्रा 50 mcg/minute से ज्यादा होती है। यदि रक्तचाप 90 mm से कम हो तो इसे नहीं देना चाहिये। इसके मुख्य दुष्प्रभाव सरदर्द, रक्तचाप और हृदयगति कम होना है।

थ्रोम्बोलाइसिस

हृदय की धमनी में बने थ्रोम्बस को धोलने लिए जितना जल्दी हो सके थ्रोम्बोलाइटिक्स दिये जाने चाहिये। कौशिश की जाती है कि द्वार से दवा की अवधि 30 मिनट से कम हो यानी इन्हें 30 मिनट के भीतर दे दिया जाय क्योंकि जितना जल्दी वाहिकाएँ खुलेंगी हृदय को क्षति उतनी ही कम होगी। यदि दौरे पड़ने के दो घन्टे के भीतर थ्रोम्बोलाइटिक्स दे दिये जाते हैं तो हृदय-रोधगलन M.I. से हो रही क्षति रुक जाती है और रोगी के बचने की संभावना में नाटकीय लाभ होता है। थ्रोम्बोलाइटिक्स के निम्न स्पष्ट संकेत हैं।

• अरक्तता के कारण 30 मिनट से छाती में दर्द हो रहा हो।

• दौरा पड़े 12 घन्टे न हुए हों।

• ई.सी.जी. की दो छाती की लीड्स के ST संभाग में कम से कम 2 mm का नया उठाव हो।

• ई.सी.जी. की दो लिम्ब लीड्स के ST संभाग में कम से कम 1 mm का उठाव हो। या

• नया लेफ्ट बन्डल ब्राँच ब्लॉक हो।

आजकल  स्टेप्टोकाइनेज, यूरोकाइनेज  और  टेनेक्टाफेज  आदि  थ्रोम्बोलाइटिक्स  उपलब्ध  हैं। स्टेप्टोकाइनेज की मात्रा 15 लाख यूनिट है, इसे 100 mL सेलाइन में मिला कर 2.5 लाख सीधा शिरा में गटका दिया जाता है और शेष धीरे-धीरे 1 लाख यूनिट प्रति घंटे की दर से दिया जाता है। यूरोकाइनेज की सामान्य मात्रा भी 15 लाख है, जिसका 2.5-5 लाख सीधा शिरा में और शेष इन्फ्यूजन द्वारा आधे से एक घन्टे में दिया जाता है।

टेनेक्टाफेज recombinant DNA तकनीक द्वारा बनाया गया टिश्यु प्लाज्मिनोजन एक्टीवेटर है। यह अच्छा है, इसे लगाना सरल है परन्तु यह मँहगा है। इसे लगाने के पहले हिपेरिन की एक खुराक भी शिरा-पथ में दी जाती है। इसे साथ आये तरल में धोल कर शिरा-पथ में गटका दिया जाता है। इसे लगाने के पहले और बाद में थाड़ा सा 0.9% सेलाइन शिरा-पथ में प्रवाहित कर देना चाहिये। टेनेक्टाफेज 75-80% रोगियों में अवरुद्ध कोरोनरी-धमनियों का पुनर्नलीकरण (recanalization) कर देती हैं जबकि स्टेप्टोकाइनेज सिर्फ 50% रोगियों में ही पुनर्नलीकरण कर पाती हैं।




टेनेक्टाफेज की वर्जना

इसे निम्न स्थितियों में नहीं देना चाहिये।

1- आन्तरिक रक्तस्त्राव 2- एओर्टिक डिस्सेक्शन 3- रक्तस्त्राव संबन्धी रोग 4- जिन्हें हाल ही गहन चोट लगी है। 5- मस्तिष्क में कोई अर्बुद हो। 6- रक्तचाप बहुत ज्यादा हो। 7- आमाशय में फोड़ा हो। 8- पिछले तीन महीने में स्ट्रोक या सर में चोट लगी हो। 9- गर्भावस्था 10- यकृत की विफलता।

एन्टीकोएगुलेन्ट्स

STEMI हार्ट-अटेक में पहले 48 घन्टे तक अक्सर हिपेरिन दिया जाता है, यह रक्त को जमने से रोकता है। इसके प्रयोग से दोबारा हार्ट-अटेक होने की संभावना कम होती है, मृत्युदर भी कम होती है। यदि प्राइमरी एन्जियोप्लास्टी करनी हो तो विशेषतौर पर इसका प्रयोग लाभदायक रहता है। हिपेरिन देना अपेक्षाकृत मुश्किल होता है, रक्त के कुछ विशेष परीक्षण करवाने पड़ते हैं और पूरी सतर्कता बरती जाती है।

 
आजकल कम आणविक भार वाले हिपेरिन या Low-molecular-weight heparin (LMWH) ज्यादा आसान व सुरक्षित माने जाते हैं। इनकी निश्चित मात्रा देना आसान है, रक्त के परीक्षण का झमेला भी इनके साथ नहीं है। अस्थिर एन्जाइना और NSTEMI में इनका प्रयोग बहुत होता है। आजकल प्रमुख LMWH डाल्टेपेरिन और एन्डोक्सेपेरिन (लोपेरिन) हैं।

ग्लाइकोप्रोटीन IIb/IIIa रोधक



बिम्बाणुओं या प्लेटलेट्स के एकत्रीकरण के कार्यपथ में प्लेटलेट्स पर स्थित ग्लाइकोप्रोटीन IIb/IIIa अभिग्राहक फाइब्रिनोजन से चिपकते हैं। ग्लाइकोप्रोटीन IIb/IIIa रोधी प्लेटलेट्स के एकत्रीकरण को अवरुद्ध करते हैं। ग्लाइकोप्रोटीन IIb/IIIa रोधी जैसे एब्सिक्सीमेब को प्राइमरी एन्जियोप्लास्टी और STEMI हार्ट-अटेक में प्रयोग किया जाता है। इसके प्रयोग से दोबारा हार्ट-अटेक होने की संभावना कम होती है, मृत्युदर भी कम होती है।


प्राइमरी कोरोनरी एन्जियोप्लास्टी


काफी पहले फेन्टेस्टिक वोएज नाम की एक फिल्म बनी थी जिसमें एक राजनेता के मस्तिष्क की नस खून का थक्का जम जाने से अवरुद्ध हो गई थी और वह ऑपरेशन नहीं करवाना चाहता था। चिकित्सकों और वैज्ञानिकों ने उसके उपचार का तरीका कुछ इस तरह निकाला था। उन्होंने एक पनडुब्बी में लेज़र गन लिए डॉक्टर्स की टीम को बिठाया और उस पनडुब्बी को मशीन द्वारा अतिसूक्ष्म बना कर सीरिंज में भर कर नस में प्रवेश करवा दिया। डॉक्टर्स पनडुब्बी को मस्तिष्क में ले गये और लेज़र गनों से खून के थक्कों को हटा कर नस को साफ कर अवरोध दूर किया। 1964 में डॉ. चार्ल्स डोटर ने इस परिकल्पना को साकार कर एन्जियोप्लास्टी उपकरण बनाया और एक रोगी के पैर की नस में जमे खून के थक्के को साफ किया। जर्मन कार्डियोलोजिस्ट एन्ड्रियास ग्रुन्जिस ने पहली बार सफल कोरोनरी एन्जियोप्लास्टी की थी। डॉ. चार्ल्स डोटर को फादर ऑफ इन्टरवेन्शनल रेडियोलोजी कहा गया और 1977 में इन्हें 1978 में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया। इस तरह एन्जियोप्लास्टी की तकनीक विकसित हुई। आजकल विशेषज्ञ STEMI हार्ट-अटेक में एन्जियोप्लास्टी करने की सलाह देते हैं। इसे प्राइमरी एन्जियोप्लास्टी कहते हैं।
  
कोरोनरी एन्जियोप्लास्टी की विधि

इसे बेलून एन्जियोप्लास्टी भी कहते हैं, क्योंकि केथेटर के छोर पर पिचके बेलून को हवा से फुला कर हृदय-धमनी में जमें एथेरोमेटस प्लॉक के तोड़ दिया जाता है। इस उच्च तकनीक उपचार को अनुभवशील कार्डियोलोजिस्ट, रेडियोलोजी टेक्नीशियन, सहायक और नर्सेज द्वारा केथलेब में सम्पन्न किया जाता है। इसमें लगभग आधा-पौना घन्टे का समय लगता है। इस क्रिया में रोगी को बेहोश नहीं किया जाता है, बस सुई घुसाने की जगह सुन्न करने की सुई लगाई जाती है।

• पहले कलाई या जाँघ की धमनी में एक सुई घुसाई जाती है तथा छिद्र में एक शीथ इन्ट्रोड्यूसर लगा दी जाती है ताकि धमनी खुली रहे और रक्तस्राव भी न हो।

• अब एक लचीला, लम्बा और कोमल गाइडिंग-केथेटर अन्दर घुसाया जाता है और उसका सिरा कोरोनरी-धमनी के मुँह तक पहुँचाया जाता है। इसके सिरे से रेडियोओपेक डाई भी रक्त में छोड़ी जा सकती है ताकि एक्स-रे के पर्दे पर एथेरोमेटस प्लॉक, धमनियों तथा केथेटर की स्थिति का सही अवलोकन हो सके। एक्स-रे देख कर चिकित्सक अनुमान लगा लेता है कि कैसा तथा किस नाप का कोरोनरी गाइडवायर (निर्देश-तार) और बेलून केथेटर प्रयोग करना है। कोरोनरी-धमनी में हिपेरिन भी दिया जाता है ताकि रक्त जमे नहीं।

• एक महीन कोरोनरी गाइडवायर, जिसका अंतिम सिरा रेडियोओपेक (एक्स-रे की लिहाज़ से अपारदर्शी) होता है, गाइडिंग-केथेटर के अन्दर होता हुआ कोरोनरी-धमनी घुसाया जाता है। बाहर एक्स-रे के पर्दे पर देखते हुए वायर को अवरोध तक पहुँचा दिया जाता है। गाइडवायर के सिरे को बाहर से घुमा कर दिशानिर्देश दिये जा सकते हैं।

• गाइडवायर के अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के बाद इसके उपर एक अन्दर से पोला एन्जियोप्लास्टी केथेटर आहिस्ता से चढ़ाया जाता है, ताकि इसका पिचके बेलूल वाला सिरा धमनी के अवरुद्ध कर रहे प्लॉक से थोड़ा सा आगे तक पहुँचे। एन्जियोप्लास्टी केथेटर के सिरे पर एक पिचका हुआ बेलून होता है और इस पर विशिष्ट धातु की जाली से बना एक स्टेन्ट पहनाया जाता है। यह जालीदार स्टेन्ट सामान्य स्थिति में लचीला और पिचका रहता है परन्तु इसे फैलाने पर यह फैल कर स्थिर (लोक) हो जाता है और फैली हुई स्थिति में ही रहता है और धमनी को भी फैला कर रखता है। अब बेलून को एक निश्चित दबाव पर फुला कर प्लॉक को तोड़ कर धमनी को फैला दिया जाता है। बेलून के फूलने से उस पर चढ़ा स्टेन्ट भी फैल कर लोक हो जाता है और धमनी फैल जाती है।

• प्रारम्भ में सामान्य स्टेन्ट प्रयोग में लिये जाते थे परन्तु कुछ वर्षों से विशिष्ट दवाइयों के लेप चढ़े स्टेन्ट काम में लिये जा रहे हैं। लगाने के बाद ये दवा को धीरे-धीरे रक्त में छोड़ते रहते हैं जिससे इनके दोबारा अवरुद्ध होने की संभावना बहुत कम रहती है। स्टेन्ट पर लेप करने के लिये आजकल बायोलिमस ए-9, ज़ेट्रोलिमस, सिरोलिमस, एवरोलिमस और पेक्लिटेक्सेल प्रयोग की जाती हैं। ये बहुत मँहगे होते हैं।



• स्टेन्ट लगाने के बाद धमनी में से सारे ताम-झाम निकाल दिये जाते हैं बस शीथ रहने दी जाती है। 4-6 घंटे बाद शीथ निकाल कर धमनी को 15-20 मिनट दबा कर प्रेशर बेन्डेज कर दी जाती है। ध्यान रखा जाता है ताकि रक्तस्राव न हो। रोगी को उसी दिन या अगले दिन घर भेज दिया जाता है।

• रोगी को नियमित एस्पिरिन लेने की सलाह दी जाती है और कुछ महीनों (सामान्यतः 3-6 महीने) तक क्लापिडोग्रेल भी दी जाती है ताकि स्टेन्ट पर थक्का बनने की संभावना रहती है। कुछ समय बाद स्टेन्ट पर जैविक ऊतक की परत बन जाती है जो बिम्बाणुओं को एकत्रित नहीं करती है।

• सफल एन्जियोप्लास्टी के बाद भी 30-50% मामलों में धमनी के पुनः अवरुद्ध होने की संभावना रहती है।

इसलिए समय-समय पर जांच करते रहना चाहिये और समुचित उपचार किया जाना चाहिये।


 
हृदय धमनी उपमार्ग निर्माण शल्यक्रिया या Coronary Artery Bypass Graft (CABG)


हृदय-धमनी उपमार्ग निर्माण शल्यक्रिया या Coronary Artery Bypass Graft (CABG) को संक्षेप में बाईपास सर्जरी, हृदय बाईपास, सी.ए.बी.जी. या केबेज भी कहते हैं। आजकल कुछ लोग इसे एओर्टोकोरोनरी बाईपास ACG भी कहते हैं। विश्व की पहली बाईपास सर्जरी 2 मई, 1960 को अमेरिका में डॉ. रोबर्ट गोट्ज़ ने की थी। आज अकेले अमेरिका में 5 लाख बाईपास प्रति वर्ष होते हैं।

मान लीजिये कि एक सड़क किसी कस्बे में होकर गुजर रही है। धीरे-धीरे लोगों की भीड़-भाड़ और वाहनों की आवाजाही और अतिक्रमण बढ़ने के कारण इस सड़क से गुजरना बहुत मुश्किल हो जाता है, कई बार यातायात जाम हो जाता है। तब हम कस्बे के बाहर-बाहर एक बाईपास सड़क या उपमार्ग बना देते हैं ताकि लम्बी दूरी का यातायात निर्बाध चलता रहे। ठीक इसी तरह जब कोई हृदय-धमनी अवरुद्ध हो जाती है तो हम शल्य क्रिया द्वारा शरीर के किसी अन्य भाग से नस निकालकर उसे हृदय की धमनी में अवरुद्ध हुए स्थान के समानांतर जोड़ कर हृदय में निर्बाध रक्त प्रवाह हेतु वैकल्पिक रक्त-पथ (bypass) बना देते हैं। इसी शल्य-क्रिया तकनीक को बाईपास सर्जरी कहते हैं।


हृदय धमनी उपमार्ग निर्माण शल्यक्रिया के संकेत

• जब अवरोध बाँई मुख्य धमनी में हो या तीन मुख्य धमनियों में हो।

• एन्जियोप्लास्टी विफल हो जाये।

• बाँया निलय या Left Ventricle ठीक से काम नहीं कर रहा हो।

• STEMI हार्ट-अटेक के तुरन्त बाद।

• पूर्व में हुए हार्ट-अटेक के कारण धातक एरिदमिया हो।

• पूर्व में की गई बाईपास में आरोपित नस में रुकावट आ जाये।



पारम्परिक बाईपास सर्जरी

यह एक बड़ी शल्यक्रिया है जिसे किसी अच्छे संस्थान में अनुभवी और कुशल हृदय शल्य-चिकित्सक, निश्चेतन विशेषज्ञ, परफ्युजनिस्ट, नर्सिंगकर्मी और तकनीकी विशेषज्ञों की टोली अंजाम देती है। इसके लिए रोगी को बेहाश करना पड़ता है। पूरी शल्य-क्रिया में 3-6 घन्टे लगते है। रोगी को 7 से ज्यादा दिन भरती रहना पड़ता है। इसका खर्चा डेढ़ से दो लाख रुपये आता है।



बाईपास की तैयारी

रोगी को शल्य-क्रिया के एक या दो दिन पहले भर्ती किया जाता है। उसे इस शल्य-क्रिया के बारे में विस्तार से बताया जाता है, इससे होने वाले लाभ और जोखिम के बारे में भी बतला दिया जाता है। यदि रोगी धूम्रपान करता हो या एस्पिरिन ले रहा है तो ये सब बन्द करने के निर्देश दिये जाते हैं। रोगी के कई तरह के परिक्षण जैसे रक्त और मूत्र की विस्तृत जांच, छाती का एक्सरे, ई.सी.जी., इकोकार्डियोग्राफी, स्पाइरोमीटरी आदि किये जाते हैं। हाल ही में की गई एन्जियोग्राफी सबसे आवश्यक परीक्षण है। निश्चेतन विशेषज्ञ रोगी की जांच कर यह सुनिश्चित कर लेता है कि रोगी इस शल्य-क्रिया के लिये पूर्णतया स्वस्थ है। साथ ही वह रोगी को दवाईयां, शल्य-क्रिया की पूर्व रात्री से निराहार रहने और अन्य सारे आवश्यक निर्देश दे देता है। परिचारिकाएँ उसकी छाती व उन अंगो की शेविगं कर देती हैं जहाँ से नस निकाली जानी है।



प्री-ऑपरेटिव रूम में

ज्योंही रोगी को प्री-ऑपरेटिव रूम में लाया जाता है, निश्चेतन विशेषज्ञ उसकी कलाई की शिरा में केन्यूला लगा देते हैं।



ऑपरेशन थियेटर में


निश्चेतन विशेषज्ञ रोगी को बेहोश करके उसकी स्वासनली में एक ट्यूब डालता है जिसे वेन्टीवेटर से जोड़ दिया जाता है। परिचारिकाएँ रोगी के शरीर की छाती और अन्य अंगो पर स्प्रिट और आयोडीन का लेप कर देती हैं। एन्जियोग्राफी और अन्य परीक्षणों को देखकर शल्य-चिकित्सक निर्णय करता है कि कितनी धमनियों में वैकल्पिक रक्त-पथ बनाने हैं और इनके लिए नसें या graft कहां से लेने हैं। रोगी को एक मॉनीटर से जोड़ दिया जाता है, जो उसकी हृदय गति, रक्तचाप, श्वसन-गति और अन्य जरूरी सूचनायें पटल पर निरन्तर प्रतिबिम्बित करता रहता है। मूत्राशय में भी केथेटर डाल कर उसे एक मूत्र की थैली से जोड़ दिया जाता है, ताकि मूत्र-स्रवण की मात्रा पर नज़र रखी जा सके।

अब मुख्य शल्य-क्रिया शुरू होती है। शल्य-चिकित्सकों की एक टोली पैर या हाथ में नश्तर से एक या कई चीरे लगा कर सावधानी से नस निकालते हैं। फिर दूसरी टोली छाती के मध्य में त्वचा को नश्तर से लम्बा काटती है और स्टर्नम (छाती के मध्य की हड्डी) को आरी ले काट कर छाती को खोल दिया जाता है। शिरा में हिपेरिन प्रवाहित किया जाता है ताकि शल्य-क्रिया के दौरान रक्त पतला बना रहे और थक्के नहीं बने। अब हृदय के बाहरी खोल पेरीकार्डियम में चीरा लगाने पर हृदय दिखाई देता है। इसके बाद कई नलियों द्वारा हृदय को हृदय-फुफ्फुस यंत्र (Heart Lung Machine) से जोड़ दिया जाता है जिससे हृदय और फेफड़ों का काम यह मशीन करने लगती है। हृदय को एक ऐसे घोल कार्डियोप्लेजिया में नहला दिया जाता है जिससे उसका तापमान कम हो जाता है और उसका धड़कना भी बंद हो जाता है।

हृदय बन्द होने पर उसके बाद ग्राफ्टिंग का काम शुरू किया जाता है। हमने पहले से ही पैर की नस या पेट की धमनी का ग्राफ्ट तैयार रखा जाता है। हृदय की धमनियों के अवराध को ध्यान से देख कर चिन्हित किया जाता है। अवरोध के आगे पोलीप्रोपाइलीन धागे से धमनी को खोल कर ग्राफ्ट से सिल देते हैं। ग्राफ्ट के दूसरे सिरे का को सीधा महाधमनी या एओरटा से जोड़ा जाता है। इस तरह सारे ग्राफ्ट लगा दिये जाते हैं। यदि ग्राफ्ट इन्टरनल मेमेरी धमनी से लेना हो तो उसका एक सिरा एओरटा से जुड़ा रहने दिया जाता है और दूसरा नीचे का सिरा हृदय की धमनी से जोड़ा जाता है। आजकल ग्राफ्ट शिरा के स्थान पर धमनियों से लेना अच्छा माना जाता है। इन्टरनल मेमेरी धमनी सर्वश्रेष्ठ मानी गई है, इसके ग्राफ्ट लम्बे समय (20-30 वर्ष) तक रोगी का साथ देते हैं और खुशकिस्मती से हमारी छाती में दो इन्टरनल मेमेरी धमनियाँ होती हैं।




बाईपास का कार्य पूरा होने पर रोगी के शरीर को गर्म किया जाता है, जिससे या तो हृदय स्वतः ही धड़कना शुरू कर देता है अन्यथा अस्थाई पेसमेकर द्वारा विद्युत के झटके देकर शुरू कर दिया जाता है। इसके बाद हृदय और फेफड़ों को रक्त संचार व्यवस्था से वापस जोड़ दिया जाता है और वे पहले की तरह काम करने लगते हैं। हार्ट लंग मशीन को हटा दिया जाता है और हृदय की सतह पर दो पेसमेकर की तारें लगा दी जाती हैं। इन तारों को अस्थाई पेसमेकर से जोड़ दिया जाता है। दिल की धड़कन के अनियमित होने पर यह पेसमेकर उसे नियंत्रित कर लेता है। छाती की हड्डियों को स्टील के तारों द्वारा मजबूती से सिलकर त्वचा में टांके लगा दिए जाते हैं। आपरेशन में तीन-चार घंटे का समय लगता है और इस दौरान रोगी को चार से छह यूनिट तक रक्त चढ़ाना पड़ सकता है।



आई.सी.यू. में


आपरेशन के बाद अगले 24 से 48 घंटे तक मरीज को डाक्टर व नर्स आदि के निगरानी में रिकवरी रूम में रखा जाता है। कार्डियक मॉनीटर की तारें इलेक्ट्रोड के जरिए मरीज की छाती से लगी होती है और ईसीजी तथा हृदय की गति लगातार रिकार्ड होते रहते हैं। एक धमनी में एक केन्यूला डली रहती है जिसे मरीज के रक्तचाप का पता चलता है, जबकि दूसरा केन्यूला गर्दन की नस में डला होता है और यह नस के भीतर का दबाव बताता है। मरीज की छाती में भी दो नली डली होती हैं जिनसे छाती के भीतर एकत्र हो रहा द्रव बाहर आता रहता है। ये सारी नलियां आपरेशन के एक दिन बाद निकाल दी जाती हैं। इनके अलावा आपरेशन के 16 से 24 घंटे बाद तक रोगी की सांस नली में एक एंडोट्रेकियल टयूब डली रहती है। यह नली रेस्पिरेटर यंत्र से जुड़ी होती है। यह रोगी को श्वसन में मदद करता है। जब रोगी अच्छी तरह सांस लेने लगता है तो रेस्पिरेटर को हटा दिया जाता है। जब तक यह नली श्वास नली में होती है रोगी न तो कुछ खा पी सकता है और न ही बातचीत कर पाता है। रोगी के मुंह और नाक पर एक आक्सीजन मास्क भी लगा दिया जाता है, ताकि रोगी को पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन मिलती रहे। आमतौर पर आपरेशन के 10-15 दिन बाद रोगी को अस्पताल से छुट्टी दे दी जाती है। तब तक उसकी छाती और पैर के जख्म भी सूख जाते हैं। पैर से नस निकालने के कारण कुछ दिनों तक पैर में सूजन रह सकती है। लेकिन पैर ऊपर उठाकर आराम करने और चलते समय पैर पर क्रैप बैंडेज बांधने से सूजन कम हो जाती है।



विशेष सन्देश

यह हमेशा याद रखें कि कोरोनरी एन्जियोप्लास्टी या बाईपास सर्जरी सिर्फ आपकी हृदय-धमनी में आये अवरोध का तात्कालिक जीवन-रक्षक उपचार भर है, ताकि आपको हृदय-रोधगलन या एन्जाइना से होने वाली जटिलताओं से बचाया जा सके। इस उपचार का ऐथेरोस्क्लिरोसिस की रोगजनकता पर कोई असर होने वाला नहीं है। जब तक आप कोरोनरी धमनी-रोग के जोखिम घटक को चिन्हित कर दूर नहीं करेंगे और जीवनशैली को नहीं सुधारेंगे, तब तक धमनियों में ये प्लॉक बनते रहेंगे।



डॉ. नरेश त्रेहान के प्रयासों से हृदय शल्य-चिकित्सा में भारत बना हाई-टेक






पद्मश्री और हृदय शल्य-क्रिया के मसीहा डॉ. नरेश त्रेहान अनेक क्रान्तिकारी प्रयोग करते आये हैं और पूरे विश्व में अपनी विशेष पहचान बनाई है। “Ace of Heart” के नाम से विख्यात इस जादूगर ने हाल ही गुड़गांव, दिल्ली में 43 एकड़ में फैले 1250 शय्याओं, गहन चिकित्सा इकाइयों (कुल बेड्स 300), 45 शल्यकक्षों और हाई-टेक उपकरणों से सुसज्जित एक सात सितारा, विश्वस्तरीय, बहुविभागीय और सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा संस्थान “मेदांता द मेडिसिटी” का निर्माण किया है, जो देश और विश्व का सबसे बड़ा चिकित्सा-संस्थान है और हमारे देश की शान है। इस संस्थान को बनने में तीन वर्ष लगे और 1200 करोड़ रुपये की लागत आई। अन्य संस्थानों की अपेक्षा यहाँ उपचार का खर्च कम आता है। गरीब मरीजों के मुफ्त इलाज के लिए मेदान्ता में व्यवस्था भी की गई है जिससे धन के अभाव में जरूरतमंद निराश नहीं लौटें। ये राष्ट्रपति के निजी चिकित्सक हैं। इन्हें पद्मश्री, पद्मभूषण, लालबहादुर शास्त्री पुरस्कार, डॉ. बी.सी.रॉय अवार्ड, ज्वेल ऑफ इन्डिया आदि अनेकों पुरस्कारों से नवाजा गया है। ये अब तक लगभग 75000 सफल हार्ट सर्जरी कर चुके हैं। ये 20 वर्ष से रोज योग करते हैं और कभी-कभी मेदान्ता की केन्टीन का समोसा खाने से भी नहीं चूकते हैं। ये अपने रोगियों को हमेशा अलसी खाने की सलाह भी देते हैं।

जहाँ धड़कते दिल पर सर्जरी करने में विश्व के बड़े-बड़े महारथियों के हाथ डर के मारे काँपते हैं वहीं हृदयरोग- चिकित्सा का यह सुल्तान धड़ल्ले से बीटिंग हार्ट सर्जरी और मिनिमल इनवेजिव तकनीक (एक छोटे से छेद द्वारा) द्वारा सर्जरी करता हैं। कॉर्डियक स्टेम सेल तकनीक की शुरुआत भी इन्होंने की है।






यह शहँशाह कोरोनरी बाइपास सर्जरी की विकास-यात्रा में शुरू से ही सहभागी रहा है। सन् 2002 में इन्होंने देश में पहली बार रोबोटिक सर्जरी की शुरूआत की थी। तब तीन बाजुओं वाले रोबोट उपलब्ध थे, लेकिन आज रोबोटिक टेकनोलोजी बहुत विकसित हो चुकी है और चार बाजुओं वाले रोबोट इन्सानी हाथों से ज्यादा बढ़िया शल्यक्रिया करने में सक्षम हैं। मेदान्ता में चिकित्सकों को रोबोटिक सर्जरी की बेहतरीन शिक्षा दी जाती है।







धड़कते दिल पर शल्य-क्रिया या बीटिंग हार्ट सर्जरी
शुरूआत में बायपास क्रिया हृदय की धड़कन रोक कर किया जाता था। इससे दूसरे अंगों जैसे, गुर्दे, यकृत, फेफड़ा आदि पर विपरीत प्रभाव पड़ता था। बीटिंग हार्ट सर्जरी नामक आधुनिक नई विधि से हृदय के केवल उस स्थान के स्थिर किया जाता है जहां शल्य-क्रिया होनी है। रोगी को मात्र एक सप्ताह ही अस्पताल में रहना होता है। बाईपास सर्जरी की नई तकनीक में बीटिंग हार्ट सर्जरी पूर्णतया सफल है।



मिनिमल इन्वेसिव तकनीक

आधुनिक स्टेबलाइजर उपकरण की मदद से अब मात्र तीन इंच जितने छोटे कट लगाकर भी धमनी बाईपास सर्जरी की जाती है। अब इसके लिये लंबे चीर-फाड़ की आवश्यकता नहीं रह गई है। इस तकनीक की विशेषता यह है कि इसे हृदय के ऊपरी भाग पर लगाकर इससे हृदय को आवश्यकतानुसार घुमाया जा सकता है। इस कारण हृदय के पिछले और किनारे के भागों को भी मिनिमल इनवेसिव तकनीक से देखना सरल हो गया है। इस तकनीक में हार्ट-लंग मशीन की भी आवश्यकता नहीं होती है। ओपन हार्ट सर्जरी की अपेक्षा छाती में एक छोटा सा चीरा लगता है, जो देखने में भी बुरा नहीं लगता। चीरा छोटा होने से रक्त-स्राव भी बहुत कम होता है और तीन से चार दिन में रोगी वापस घर जा सकते हैं। इसका व्यय भी पुरानी ओपन-हार्ट तकनीक की तुलना में 50-60 हजार रुपये कम आता है।


रोबोटिक हार्ट सर्जरी



रोबोटिक सर्जरी में सर्जन शल्यकक्ष के एक कोने में या अन्य किसी भी दूरस्थ स्थान पर स्थित कम्प्यूटर-कन्सोल पर बैठा कम्प्यूटर के स्क्रीन को देख कर मशीन के विशेष कन्ट्रोल्स (जॉयस्टिक्स) को अपने पैर व हाथों से नियंत्रित कर रोबोट्स को सर्जरी करने के निर्देश देते हैं। रोबोट की कीमत 12 लाख डालर होती है और एक ऑपरेशन में डिस्पोजेबल्स का खर्च 55000 रुपये आता है। रोबोट रूपी इस छोटी मशीन में धातु से बने चार पतले-पतले हाथ होते हैं, ये छोटे से छिद्रों द्वारा हृदय तक पहुँच कर इतनी उम्दा, उन्नत, सटीक और सूक्ष्म शल्यक्रिया करते हैं जो शल्य-चिकित्सक के लिए हाथों से करना संभव नहीं है। चिकित्सकों की एक टोली रोगी के साथ रहती है। इनका कार्य रोबोट की मदद करना, जरूरत पड़े तो हार्ट-लंग मशीन प्रयोग करना, रोबोट को इन्स्ट्रूमेन्ट्स देना आदि है।
 
मरीज के सीने में रोबोट के हाथों को घुसाने के लिए सीने में छोटे-छोटे छेद किये जाते हैं। एक बाँह के सिरे पर 3-डी कैमरा लगा होता है, अन्य तीन शल्यक्रिया करते हैं। रोबोट पर लगा कैमरा अन्दर की त्रि-आयामी तस्वीरों को बड़ा करके कम्प्यूटर-पटल पर प्रसारित करता है। आजकल रोबोट द्वारा दो धमनियों में ग्राफ्ट लगाना संभव है, परन्तु भविष्य में दो से ज्यादा धमनियों में ग्राफ्ट लगाना संभव हो जायेगा। सामान्यतः ग्राफ्ट इन्टरनल मेमेरी धमनियों से लिए जाते हैं। इस सर्जरी में पूरे सीने को खोलने की जरूरत नहीं होती बल्कि छोटे से छेद किये जाते हैं, हार्ट-लंग मशीन काम में नहीं ली जाती है, शारीरिक आघात कम होता है, दुष्प्रभाव न्यूनतम होते हैं, रोगी को 2-4 दिन में घर भेज दिया जाता है और वह शीघ्र ठीक (कुछ ही हफ्तों में) होकर अपने कार्य पर जल्दी लौटता है। आजकल हाइब्रिड सर्जरी भी की जा रही है जिसमें एक ओर रोबोट धमनियों में ग्राफ्ट लगा रहा होता है और उसी समय दूसरी टीम कुछ छोटी धमनियों की एन्जियोप्लास्टी कर रही होती है। क्या चमत्कार है!!!

कार्डियक स्टेम सेल है वरदान

कार्डियक स्टेम सेल तकनीक के नतीजे आशा के अनुरूप रहे हैं। खासकर हार्ट अटैक के बाद हृदय की मांसपेशियों को जो क्षति पहुंचती है, उसकी भरपाई करने में स्टेम सेल तकनीक के नतीजे काफी अच्छे रहे हैं। कार्डियक स्टेम सेल थेरैपी के अंतर्गत स्टेम सेल्स हृदय रोगी के अपने बोन-मैरो से लिए जाते हैं। स्टेम सेल्स का रोगग्रस्त हृदय में प्रत्यारोपण करने में ट्रांसमायोकॉर्डियल रीवेस्कुलराइजेशन तकनीक उपयोग में लायी जाती है और दूसरी विधि के तहत इन्ट्राकार्डियल इंजेक्शन के माध्यम से स्टेम सेल्स को प्रत्यारोपित करते हैं।

दिल के दौरे के बाद पुनर्वास या Cardiac Rehab Program

पुनर्वास का मुख्य उद्देश्य दिल के दौरे के कारण हुई जटिलताओं को दूर करना, मानसिक रूप से आत्मविश्वास जगाना, व्यवसाय पर पुनरस्थापित करना व जोखिम घटकों को उलटना है ताकि दिल का दौरा पुनः नहीं आ पाए। साधारणतया पुनर्वास दिल के दौरे के पहले दिन से ही शुरू किया जाता हैं।



दिल के दौरे के बाद के पहले दस दिन दौरे के बाद पहले बहत्तर घंटे लेटे रहने या आराम की जरूरत रहती हैं। किसी भी आरामदायक अवस्था में आप लेट सकते हैं। फ़िजियोथेरापिस्ट आपके हाथ-पाँव की हल्की सी एक्सरसाइज में मदद करते हैं। चौथे दिन आपको आमतौर पर शय्या से बाहर उतरने व कुर्सी पर बैठने की इजाजत दी जाती हैं। मरीज अपनी शय्या के आसपास एक-दो चक्कर लगा सकता हैं।

पाँचवें रोज शौच आदि के लिये शौचालय तक जाना, दाढ़ी बनाना व 20-25 मीटर तक चलना ऊचित हैं।

छठें रोज हार्ट अटैक के बाद पाँचवें-छठें रोज तक यदि मरीज की स्थिति नियंत्रण में हैं व कोई तकलीफ नहीं हो व प्रारंभिक खून व हृदय के परीक्षण से चिकित्सक निश्चिंत हो जाएं तो रोगी को गहन चिकित्सा कक्ष से वार्ड में भेज दिया जाता हैं। वहाँ फ़िजियोथेरापिस्ट की मदद से व्यायाम आदि शुरू कराये जाते हैं।

दूसरे सप्ताह साधारणतया दसवें-ग्यारहवें दिन मरीज को घर भेज दिया जाता हैं। इस दौरान घर में अंदर या बाहर धीरे-धीरे चलना अपेक्षित हैं।

दिल के दौरे के बाद तीसरे सप्ताह मरीज कुछ हल्के-फुल्की शारीरिक क्रियायें कर सकता है। ध्यान रखने की बात यह है कि शरीर को ज्यादा कष्ट न दिया जाए।

चौथे सप्ताह घर के किसी व्यक्ति के साथ सुबह व शाम की सैर पचास कदम से शुरूआत करिए। धीरे-धीरे दूरी बढ़ाई जा सकती हैं और महीने के अंत तक एक किलोमीटर तक जाया जा सकता हैं। मगर चढ़ाई से बचना चाहिए। छठें से आठवें सप्ताह तक रोजमर्रा की जिंदगी व क्रियाकलाप शुरू किए जा सकते हैं।



ध्यान रखिए

1- यदि आपको सीने में दर्द हो या भारीपन लगे, चक्कर आए, साँस फूले या गला अवरुद्ध होने का एहसास हो तो तुरंत आराम करना आवश्यक है। चिकित्सक को अपनी स्थिति के बारे में बराबर बताते रहिए व दवाइयाँ बराबर लें। साथ में आइसोर्डिल रखना भी ठीक है।

2- आमतौर पर चिकित्सक अस्पताल मे छुट्टी करने से पहले दिल की संकुचन क्षमता जाँचने के लिये ईको-कार्डियोग्राम करते हैं। जिससे भविष्य में सीने के दर्द व दिल का दौरा के बारे में जाना जा सके, दवाइयाँ निर्धारित की जा सकें व भविष्य में दिये जाने वाला उपचार सुनिश्चित किया जा सके।

आहार के बारे में विशेष निर्देश

खानपान का दिल के मरीज के लिये विशेष महत्व हैं। पहले दो दिन बहुत हल्का आहार दिया जाता है। फिर धीरे- धीरे कम वसा वाला खाना दिया जाता है। घर पर पहुँचने के बाद हल्का भोजन लें ताकि आपका वजन ना बढ़े और यदि ज्यादा है तो वजन कम करना चाहिए।

1- वसायुक्त खाना बिल्कुल नहीं या कम मात्रा में लेना चाहिए। मांसाहारियों के लिए चिकन व फिश उपयुक्त है।

2- खाना पकाने के लिए तिल या सरसों का कच्ची घाणी का तेल प्रयोग करें।

3- अंडे नहीं खायें या ज्यादा से ज्यादा दो प्रति सप्ताह।

4- खाने में हरी सब्जियां व फलों की मात्रा बढ़ाएं, सिमित मात्रा में सैंधा नमक ही प्रयोग करें।


6- अलसी दिल के लिए ईश्वर का वरदान है।
5- धूम्रपान व मदिरा पर पूरी पाबंदी हैं।


अन्य सावधानियाँ

1- सीढ़ियाँ धीरे-धीरे चढ़ें। 4-5 सीढ़ी के बाद आराम करें। पहले कुछ सप्ताह घर ही रहें।

2- वजन उठाना या किसी तरह का तनाव नुकसानदेह साबित हो सकता है।

3- कार चलाना आमतौर पर चार से छह सप्ताह बाद शुरू करें। भीड़-भाड़ आपको मानसिक तनाव दे सकती है।

4- चिकित्सक द्वारा लिखी गई दवाइयाँ समय पर लें। हर सप्ताह एक बार अपने चिकित्सक से जरूर परामर्श करें। यदि आपको उच्च रक्तचाप या मधुमेह हैं तो और ज्यादा नियंत्रण की आवश्यकता है।


Dr. O.P.Verma

M.B.B.S.,M.R.S.H.(London)
President, Flax Awareness Society
7-B-43, Mahaveer Nagar III, Kota (Raj.)
Visit us at http://flaxindia.blogspot.com
Mobile No# 09460816360

1 comment:

Unknown said...

Nice briefing for heart attack

मैं गेहूं हूँ

लेखक डॉ. ओ.पी.वर्मा    मैं किसी पहचान का नहीं हूं मोहताज  मेरा नाम गेहूँ है, मैं भोजन का हूँ सरताज  अडानी, अंबानी को रखता हूँ मुट्ठी में  टा...