नेफ्रोन या वृक्काणु
नेफ्रोन या वृक्काणु गुर्दे की संरचनात्मक और कार्यात्मक इकाई है। नेफ्रोन शब्द ग्रीक भाषा के νεφρός - नेफ्रोस = गुर्दा शब्द से बना है। इसे यूरीनीफेरस ट्यूब्यूल भी कहते हैं। नेफ्रोन का मुख्य कार्य पहले रक्त का निस्यंदन या फिल्ट्रेशन, फिर आवश्यक तत्वों का पुनर्अवशोषण और शेष दूषित तत्वों का मूत्र के रूप में उत्सर्जन कर शरीर में पानी और विद्युत अपघट्य या इलेक्ट्रोलाइट्स की सांद्रता का नियंत्रण करना है। नेफ्रोन शरीर से दूषित पदार्थों का उत्सर्जन करते हैं, रक्त के आयतन, रक्तचाप तथा पीएच का नियंत्रण करते हैं और इलेक्ट्रोलाइट्स तथा अन्य पदार्थों का नियमन करते हैं। ये कार्य शरीर के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं और अंतःस्रावी हार्मोन्स जैसे एन्टीडाइयूरेटिक हार्मोन ADH, एल्डोस्टीरोन और पेराथायराइड हार्मोन द्वारा प्रभावित होते हैं। सामान्यतः एक गुर्दे में 8-15 लाख नेफ्रोन होते हैं, जो 10-20 तिकोनी पिरेमिड नामक संरचना में फैले होते हैं। नेफ्रोन का कुछ भाग कोर्टेक्स और शेष मेडूला में होता है।
नेफ्रोन के दो मुख्य भाग पहला आरंभिक फिल्ट्रेशन इकाई रीनल कोर्पुसल और दूसरा ट्युब्यूल जहाँ विभिन्न पदार्थों का जटिल पुनर्अवशोषण और स्रवण होता है। नेफ्रोन्स दो तरह के होते हैं। 1- कोर्टिकल नेफ्रोन - 85% नेफ्रोन कोर्टिकल नेफ्रोन होते हैं और ये कोर्टेक्स में स्थित होते हैं। 2- जक्स्टामेड्यूलरी नेफ्रोन – ये मेड्यूला के पास स्थित होते हैं। इनका लूप ऑफ हेनली ज्यादा लम्बा होता है और मेड्यूला में ज्यादा गहराई तक जाता है।
रीनल कोर्पुसल
रीनल कोर्पुसल
रीनल कोर्पुसल के दो घटक ग्लोमेर्युलस और बोमेन्स केप्स्यूल होते हैं। ग्लोमेर्युलस एक रक्त केशिकाओं Capillaries के जाल से बना एक गेंद के आकार का गुच्छा है जो अन्तर्गामी धमनिका Afferent arteriole से रक्त प्राप्त करता है और बहिर्गामी धमनिका Efferent arteriole द्वारा रक्त का निकास करता है। ध्यान रहे रक्त का निकास धमनिका Arteriole से होता है न कि शिरा से, इस विचित्र बनावट के कारण ही ग्लोमेर्युलस में रक्त का दबाव पर्याप्त रहता है। बहिर्गामी धमनिका विभाजित होकर वासा रेक्टा नामक एक महीन रक्त केशिकाओं का जाल बनती है जो U के आकार के लूप ऑफ हेनली के साथ चलता है और अंत में वृक्क शिरा में मिल जाता है। वासा रेक्टा में पानी और कई तत्वों का पुनर्अवशोषण होता है।
बोमेन्स केप्स्यूल एक कप की शक्ल की दोहरी परत वाली एक संरचना होती है जो अपने अन्दर ग्लोमेर्युलस को समाये रखती है। इसकी बाहरी परत साधारण स्क्वेमस इपीथीलियम और अन्दर की परत विशेष तरह की पोडोसाइट कोशिकाओं से बनी होती है। बोमेन्स केप्स्यूल से प्रोक्सिमल कनवोलियूटेड ट्युब्यूल निकलती है।
प्रोक्सिमल कनवोल्यूटेड ट्युब्यूल का मुख्य कार्य पानी और विद्युत अपघट्य पदार्थों का Na+/K+ ATPase पंप द्वारा सक्रिय पुनर्अवशोषण करना है। फिल्ट्रेट का 65% पानी और सोडियम तथा 50% पोटेशियम और क्लोराइड का अवशोषण यहीं होता है। प्रोक्सिमल ट्युब्यूल में फिल्ट्रेट की परासारिता में कोई बदलाव नहीं होता है क्योंकि पानी और सोल्यूट का दोनों का ही लगभग बराबर अवशोषण होता है। यानी बोमेन्स केप्सूल में फिल्ट्रेट की परासारिता 300 mOsM होती है और प्रोक्सिमल ट्युब्यूल से निकलने के बाद भी फिल्ट्रेट की परासारिता 300 mOsM होती है।
बोमेन्स केप्स्यूल एक कप की शक्ल की दोहरी परत वाली एक संरचना होती है जो अपने अन्दर ग्लोमेर्युलस को समाये रखती है। इसकी बाहरी परत साधारण स्क्वेमस इपीथीलियम और अन्दर की परत विशेष तरह की पोडोसाइट कोशिकाओं से बनी होती है। बोमेन्स केप्स्यूल से प्रोक्सिमल कनवोलियूटेड ट्युब्यूल निकलती है।
बोमेन्स केपस्यूल में निस्यन्दन Ultrafiltration का मुख्य बल रक्तचाप का दबाव है। रक्त के छनने की क्रिया गैर-चयनात्मक तथा परोक्ष (Non-selective & Passive) होती है। यह अल्ट्राफिल्ट्रेशन जलीय दबाव के कारण होता है, इसमें कोई सक्रिय बल या शक्ति (ए.टी.पी.) काम नहीं करती है। इस निस्यन्दन की प्रक्रिया को रसोई में प्रयोग में ली जाने वाली साधारण सी छेद वाली चलनी से क्या जा सकता है। जो कुछ छन कर निकलता है उसे निस्यंद या फिल्ट्रेट कहते हैं। ग्लोमेर्युलस में रक्त के दबाव के कारण रक्त से लगभग 20 प्रतिशत पानी और सोल्यूट छन कर बोमेन्स केप्स्यूल में पहुँचता है और शेष रक्त बहिर्गामी धमनिका द्वारा बाहर निकल कर वासा रेक्टा में जाता है। ग्लोमेर्युलर केशिकाओं की भित्तियों तथा बोमेन्स केपस्यूल की अन्दरूनी परत में पोडोसाइट कोशिकाओं के बीच विशेष छिद्र होते हैं और जो कुछ इन छिद्रों में समा सकता है वह सब (पानी, प्लाज्मा में घुले हुए इलेक्ट्रोलाइट्स, ग्लूकोज, अमाइनो एसिड, पोषक तत्व, यूरिया, कार्बनिक व अन्य दूषित पदार्थ आदि सब कुछ) छन जाता है। सिर्फ श्वेत व लाल रक्त कण, प्लेटलेट्स और प्रोटीन (क्योंकि इनके अणु बड़े होते हैं) नहीं छन पाते हैं।
एक मिनट में रक्त की जितनी मात्रा छनती है उसे Glomerular Filtration Rate GFR या वाहिका गुच्छीय निस्यन्दन दर करते हैं। पुरुषों में जी.एफ.आर. 125 मिलि प्रति मिनट और स्त्रियों में 115 मिलि प्रति मिनट होता है। वैसे तो जी.एफ.आर. रक्तचाप पर निर्भर करता है और रक्तचाप हृदय के संकुचन और विस्तारण (Systole & Diastole) के प्रभाव से निरन्तर ऊपर-नीचे होता है। परन्तु यहाँ विचित्र बात यह है कि जब तक औसत रक्तचाप (जो सिस्टोलिक और डायस्टोलिक रक्तचाप का औसत है) 80 mm से 180 mm के बीच रहता है जी.एफ.आर. बिलकुल स्थिर रहता है। हाँ यदि औसत रक्तचाप 80 mm से कम होता है तो जी.एफ.आर. भी कम होने लगता है और यदि औसत रक्तचाप 180 mm से बढ़ता है जी.एफ.आर. भी बढ़ने लगता है। जी.एफ.आर. का यह कड़ा और अनूठा नियंत्रण तीन शक्तियाँ करती हैं। ये हैं 1- ऑटोनोमिक नर्वस सिस्टम 2- स्वनियंत्रण या ऑटो रेग्युलेशन और 3- ट्युब्युलो-ग्लोमेर्युलर फीडबेक। स्वनियंत्रण में अन्तर्गामी धमनिका रक्तचाप उपर-नीचे होने पर अपनी पेशियों का विस्तारण या संकुचन करके जी.एफ.आर. को स्थिर रखती हैं। ट्युब्युलो-ग्लोमेर्युलर फीडबेक- डिस्टल कनवोल्यूटेड ट्युब्युल में फिल्ट्रेट के दबाव घटने या बढ़ने पर उसके मेक्यूला डेन्सा सेल्स जक्स्टाग्लोमेर्युलर यंत्र के द्वारा अन्तर्गामी धमनिका को विस्तारण या संकुचन के लिए रासायनिक सन्देशवाहक पेराक्राइन्स भेज देते हैं और जी.एफ.आर. स्थिर बना रहता है। इस तरह हमने देखा कि रक्तचाप के एक निश्चित सीमा तक घटने बढ़ने का जी.एफ.आर. पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।
रीनल ट्युब्यूल के बोमेन् केप्स्यूल से लूप ऑफ हेनली तक के भाग को प्रोक्सिमल कनवोल्यूटेड ट्युब्यूल कहते हैं। इसकी खास विशेषता इसके ब्रश बॉर्डर कोशिकाएँ हैं। इसके अन्दर की इपीथीलियल कोशिकाओं पर घनी ब्रश के आकार की माइक्रोविलि होती हैं, इसलिए इन्हें ब्रश बॉर्डर कोशिकाएँ कहते हैं। इन माइक्रोविलि के कारण अवशोषण सतह कई गुना बढ़ जाती हैं। इनमें प्रचुर मात्रा में माइटोकोन्ड्रिया होते हैं, जो सोडियम के सक्रिय अवशोषण के लिए उर्जा प्रदान करते हैं। प्रोक्सिमल ट्युब्यूल को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है। पहला घुमावदार भाग जो गुर्दे के बाहरी हिस्से कोर्टेक्स में होता है और जिसे पार्स कनवोल्यूटा और दूसरे सीधे भाग को पार्स रेक्टा कहते हैं। इन दोनों हिस्सों की संरचना और कार्य अलग-अलग होते हैं। कुछ अनुसन्धानकर्ताओं ने कार्यप्रणाली की भिन्नता की वजह से पार्स कनवोल्यूटा को भी दो उपभागों S1 और S2 में बाँटा है। इस तरह पार्स रेक्टा को S3 कहते हैं। यह बाहरी मेडूला में स्थित रहता हैं और मेडूला में एक निश्चित स्तर पर लूप ऑफ हेनली से जुड़ता है।
कार्य
प्रोक्सिमल कनवोल्यूटेड ट्युब्यूल का मुख्य कार्य पानी और विद्युत अपघट्य पदार्थों का Na+/K+ ATPase पंप द्वारा सक्रिय पुनर्अवशोषण करना है। फिल्ट्रेट का 65% पानी और सोडियम तथा 50% पोटेशियम और क्लोराइड का अवशोषण यहीं होता है। प्रोक्सिमल ट्युब्यूल में फिल्ट्रेट की परासारिता में कोई बदलाव नहीं होता है क्योंकि पानी और सोल्यूट का दोनों का ही लगभग बराबर अवशोषण होता है। यानी बोमेन्स केप्सूल में फिल्ट्रेट की परासारिता 300 mOsM होती है और प्रोक्सिमल ट्युब्यूल से निकलने के बाद भी फिल्ट्रेट की परासारिता 300 mOsM होती है।
प्रोक्सिमल ट्युब्यूल में लगभग 100% ग्लूकोज, अमाइनो एसिड, बाइकार्बोनेट, अकार्बनिक फोसफोरस व अन्य पदार्थों का पुनर्अवशोषण सोडियम के ग्रेडियेन्ट पर आधारित को-ट्राँसपोर्ट चेनल द्वारा हो जाता है। लगभग 50% यूरिया का पुनर्अवशोषण भी यहीं हो जाता है। पेराथायरॉयड हार्मोन प्रोक्सिमल ट्युब्यूल में फोसफोरस का अवशोषण कम करता है, लेकिन साथ ही आँतों तथा हड्डियों से फोसफोरस लेकर रक्त में पहुँचाता है और इस तरह रक्त में फोसफोरस के स्तर में कोई बदलाव नहीं होता है।
हेनली का मोड़ या लूप ऑफ हेनली
लूप ऑफ हेनली मेडूला में स्थित नेफ्रोन का लूप के आकार का वह भाग है जो प्रोक्सिमल कनवोल्यूटेड ट्युब्यूल को डिस्टल कनवोल्यूटेड ट्युब्यूल से जोड़ता है। यह नेफ्रोन का बहुत ही महत्वपूर्ण और विचित्र भाग है। इसकी खोज एफ.जी.जे.हेनली ने की थी और इसे अपना नाम भी दिया था। इसका मुख्य कार्य मेडूला में सोडियम की परासारिता बढ़ाना है। जैसे जैसे लूप ऑफ हेनली नीचे की ओर बढ़ता है सोडियम की परासारिता 300 mOsM से बढ़ते-बढ़ते 1200 mOsM तक पहुँच जाती है। यानी सरल शब्दों में कहें तो जैसे जैसे हम मेडूला में केन्द्र की ओर बढ़ेंगे तो मेडूला ज्यादा और ज्यादा नमकीन होता जायेगा।
इसे पाँच भागों में बाँटा जा सकता है।
1- मोटा डिसेन्डिंग लूप ऑफ हेनली
2- पतला डिसेन्डिंग लूप ऑफ हेनली
3- पतला असेन्डिंग लूप ऑफ हेनली
4- मेडूला में स्थित मोटा असेन्डिंग लूप ऑफ हेनली
5- कोर्टेक्स में स्थित मोटा असेन्डिंग लूप ऑफ हेनली
डिसेन्डिंग लूप ऑफ हेनली में आयन्स और यूरिया के लिए पारगम्यता लगभग न के बराबर होती है परन्तु पानी के लिए यह पूर्णतया पारगम्य होती है। चूँकि जैसे जैसे मेडूला में डिसेन्डिंग लूप नीचे की ओर जाता है बाहर सोडियम यानी नमक की परासारिता बढ़ती जाती है तथा उसके रसाकर्षण से पानी का पुनर्अवशोषण होता है। इसके फलस्वरूप लूप में सोल्यूट साँद्र होता जाता है तथा उसकी परासारिता भी बढ़ती जाती है और नीचे आते-आते 1200 mOsM तक पहुँच जाती है। डिसेन्डिंग लूप चूँकि आयन्स के लिए पारगम्य नहीं होता है इसलिए यहाँ सोडियम आदि आयन्स का कोई अवशोषण या स्रवण नहीं होता है।
असेन्डिंग लूप ऑफ हेनली की उपकला (Epithelium) की आँतरिक झिल्ली में Na-K-2Cl केरियर (जो सोडियम साँद्रता की क्रमिकता के द्वारा इनका अवशोषण करते हैं) तथा बाहरी आधारी झिल्ली या Basal Membrane में कई सोडियम-पोटेशियम पंप और पोटेशियम/क्लोराइड कोट्राँसपोर्टर पंप होते हैं। डिसेन्डिंग लिम्ब सोडियम और अन्य आयन्स के लिए पारगम्य होता है परन्तु पानी के लिए पारगम्य नहीं होता है। असेन्डिंग लूप ऑफ हेनली में सक्रिय परिवहन द्वारा सोडियम, पोटेशियम और क्लोराइड आयन्स का पुनर्अवशोषण होता है। असेन्डिंग लूप पानी के लिए पारगम्य नहीं होने के कारण पानी का कोई अवशोषण नहीं होता है यानी कोई रसाकर्षण नहीं होता है। असेन्डिंग लूप में पोटेशियम चेनल से पोटेशियम का पेस्सिव स्रवण भी होता है। इस पोटेशियम के स्रवण के कारण सोडियम, केलशियम और मेगनीशियम का भी पेस्सिव पुनर्अवशोषण होता है। इस सबके परिणाम स्वरूप असेन्डिंग लूप में सोल्यूट की साँद्रता कम होती जाती है और सोल्यूट की परासारिता 1200 mOsM से घटते-घटते डिस्टल कनवोल्यूटेड ट्युब्यूल तक 100 mOsM रह जाती है, यानी फिल्ट्रेट हाइपोटोनिक हो जाता है।
लूप ऑफ हेनली को रक्त की आपूर्ति बहिर्गामी धमनिका Efferent arteriole से निकलने वाली केशिकाओं के जाल से होती है जो लूप के साथ लिपटती हुई चलती है। इसे वासा रेक्टा कहते हैं और इसका आकार लूप की तरह होने के कारण मेडूला में सोडियम (नमक) साँद्रता की अनूठी क्रमिकता (Gradient) बनी रहती है। डिसेन्डिंग लूप से रसाकर्षण के द्वारा जो पानी का अवशोषण अन्तरालीय स्थान या interstitium में होता है वह वासा रेक्टा में अवशोषित हो जाता है। वासा रेक्टा में रक्त का प्रवाह कम होने के कारण परासरणीय संतुलन बनने में समय लगता है और मेडूला में वाँछनीय नमक की साँद्रता बनी रहती है।
इस तरह लूप ऑफ हेनली में पानी का 25%, सोडियम तथा क्लोराइड का 25% और पोटेशियम का 40% पुनर्अवशोषण होता है।
दूरस्थ कुँडलित नलिका या डिस्टल कनवोल्यूटेड ट्युब्यूल DCT
डिस्टल कनवोल्यूटेड ट्युब्यूल लूप ऑफ हेनली और कलेक्टिंग डक्ट के बीच का घुमावदार खण्ड है। इनके अन्दर सामान्य क्युबॉयडल इपिथीलियम कोशिकाएँ होती हैं। इसकी इपिथीलियम कोशिकाएँ पी.सी.टी. से छोटी हाती हैं। इसका ल्यूमन अपेक्षाकृत बड़ा होता है। इसमें भी माइटोकोन्ड्रिया बहुत होते हैं। जहाँ डी.सी.टी. ग्लोमेर्युलस की अन्तर्गामी धमनिका को छूती है, वहाँ उसमें क्युबॉयडल इपिथीलियम के स्थान पर मेक्यूला डेन्सा नाम की गहरे रंग की स्पष्ट और बड़े न्यूक्लियस वाली घनी कोशिकाएँ होती हैं। ये सोडियम (नमक) के प्रति संवेदनशील होती हैं। और सोडियम को चखती रहती हैं। जैसे ही इन्हें लगता हैं कि डी.सी.टी. में सोडियम कम है (मतलब रक्तचाप कम हो रहा है) तो ये जक्स्टाग्लोमेर्युलर कोशिकाओं को रेनिन स्राव करने का आदेश कर देती हैं ताकि रक्तचाप सामान्य हो सके।
कार्य
सिर्फ 15-20% फिल्ट्रेट ही यहाँ पहुँचता है। यहाँ पोटेशियम, सोडियम, केलशियम और पीएच का आँशिक विनियम होता है। होर्मोन आधारित केलशियम का नियंत्रण यहीं होता है। इसके अन्दर की सतह पर पेस्सिव थायज़ाइड (एक मूत्र-वर्धक दवा) संवेदनशील सोडियम पोटेशियम कोट्राँसपोर्टर होते हैं जो केलशियम के लिए भी पारगम्य होते हैं। उपकला की आधारीय-पार्श्विक सतह (रक्त) पर ए.टी.पी. निर्भर सोडियम/पोटेशियम एन्टीपोर्ट पंप, आंशिक सक्रिय सोडियम/केलशियम ट्राँसपोर्टर एन्टीपोर्ट और ए.टी.पी. निर्भर केलशियम ट्राँसपोर्टर होते हैं। आधारीय-पार्श्विक सतह पर ए.टी.पी. निर्भर सोडियम/पोटेशियम पंप सोडियम साँद्रता बढ़ाता है जिससे सोडियम/क्लोराइड सिन्पोर्ट द्वारा सोडियम का और सोडियम/केलशियम ट्राँसपोर्टर एन्टीपोर्ट से केलशियम का अवशोषण होता है।
• डी.सी.टी. पीएच का नियंत्रण बाइकार्बोनेट के अवशोषण और प्रोटोन (हाइड्रोजन) के स्रवण या प्रोटोन के अवशोषण और बाइकार्बोनेट के स्रवण द्वारा करता है।
• सोडियम और पोटेशियम का नियंत्रण पोटेशियम के स्रवण और सोडियम के अवशोषण से करता है। दूरस्थ नलिका में सोडियम का अवशोषण ऐल्डोस्टीरोन होर्मोन द्वारा प्रभावित होता है। ऐल्डोस्टीरोन सोडियम का अवशोषण बढ़ाता है। सोडियम और क्लोराइड का पुनर्अवशोषण WNK काइनेज (ये चार तरह के होते हैं) द्वारा भी प्रभावित होता है।
• केलशियम का नियंत्रण पेराथायरॉयड हार्मोन के प्रभाव से केलशियम के पुनर्अवशोषण द्वारा होता है। पेराथायरॉयड हार्मोन केलशियम को नियंत्रण करने वाले प्रोटीन में एक फोस्फेट ऑयन जोड़ कर दूरस्थ नलिका में सभी ट्राँसपोर्टरों का निर्माण करता है।
कलेक्टिंग डक्ट तंत्र
संग्रहण नलिका तंत्र या कलेक्टिंग डक्ट तंत्र एक नलिका है जो डिस्टल ट्युब्यूल ये शुरू होती है और जिसमें कई दूरस्थ कुँडलित नलिका या डिस्टल ट्युब्यूल जुड़ती जाती हैं और यह कोर्टेक्स से और मेडूला को पार करती हुई अंत में रीनल केलिक्स में खुलती है। यह पुनर्अवशोषण और स्रवण के द्वारा पानी और विद्यत-अपघट्य के सन्तुलन में मदद करता है। यहाँ इस क्रिया में ऐल्डोस्टीरोन और ऐन्टीडाययूरेटिक हार्मोन की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। कलेक्टिंग डक्ट तंत्र के भी कई उप-खण्ड कलेक्टिंग ट्युब्यूल, कोर्टिकल कलेक्टिंग डक्ट और मेड्यूलरी कलेक्टिंग डक्ट होते हैं।
कार्य
यह पानी और विद्यत-अपघट्य के सन्तुलन करने वाले तंत्र का आखिरी भाग है। यहाँ लगभग 5% सोडियम और पानी का पुनर्अवशोषण होता है। परन्तु तीव्र डिहाइड्रेशन होने पर यह 24% से भी ज्यादा पानी का पुनर्अवशोषण कर सकता है। संग्रहण नलिका तंत्र में पानी के पुनर्अवशोषण में इतना फर्क इस तंत्र के हार्मोन्स पर निर्भरता के कारण आता है। संग्रहण नलिका तंत्र का आखिरी भाग ऐन्टीडाययूरेटिक होर्मोन (ADH) के बिना पानी के लिए पारगम्य नहीं है।
• ऐन्टीडाययूरेटिक होर्मोन की अनुपस्थिति में फिल्ट्रेट से पानी का अवशोषण नहीं हो पाता है और मूत्र ज्यादा आता है।
• एक्वापोरिन-2 प्रिन्सिपल सेल की आंतरिक उपकला और पूरी कोशिका में फैली पुटिका या वेजाइकल में पाये जाते हैं। ये वाज़ोप्रेसिन या ऐन्टीडाययूरेटिक होर्मोन की उपस्थिति में पानी का अवशोषण करते हैं और मूत्र को साँद्र बनाते हैं।
• संग्रहण नलिका तंत्र क्लोराइड, पोटेशियम, हाइड्रोजन और बाइकार्बोनेट का भी सन्तुलन रखते हैं।
• संग्रहण नलिका तंत्र में थोड़ा सा यूरिया भी अवशोषित होता है।
• इस खण्ड में यदि रक्त का पीएच कम हो तो प्रोटोन पंप प्रोटोन्स का स्रवण कर पीएच को सन्तुलित करता है।
संग्रहण नलिका तंत्र के हर भाग में दो प्रकार की कोशिकाएँ इन्टरकेलेट सेल्स और विशिष्ट प्रकार का कोशिकाएँ (जो हर उप-खण्ड में अलग तरह की होती हैं) होती हैं। कलेक्टिंग डक्ट में ये विशिष्ट कोशिका प्रिन्सिपल सेल कहलाती है। ये प्रिन्सिपल सेल की आधारीय-पार्श्विक झिल्ली में स्थित सोडियम और पोटेशियम चेनल्स के द्वारा सोडियम और पोटेशियम का सन्तुलन रखते हैं। ऐल्डोस्टीरोन ए.टी.पी. निर्भर सोडियम/पोटेशियम पंपों की संख्या बढ़ाते हैं और सोडियम का पुनर्अवशोषण तथा पोटेशियम का स्रवण बढ़ाते हैं। इन्टरकेलेट सेल्स अल्फा और बीटा प्रकार के होते हैं तथा रक्त का पीएच नियंत्रण में सहायता करते हैं।
इस तरह उत्सर्जित होने वाले मूत्र की परासारिता 1200 mOsm/L (प्लाज्मा से चार गुना) और मात्रा 1200 ml/day होती है जो GFR का 0.66% है।
जक्स्टा ग्लोमेर्युलर यंत्र
जक्स्टा ग्लोमेर्युलर यंत्र वृक्क की एक सूक्ष्म संरचना है जो नेफ्रोन में रक्त की आपूर्ति, रक्तचाप और जी.एफ.आर. का नियंत्रण करती है। यह ग्लोमेर्युलस के पास से गुजरती दूरस्थ कुँडलित नलिका और ग्लोमेर्युलस के बीच स्थित होता है, इसीलिए इसे जक्स्टा ग्लोमेर्युलर (ग्लेमेर्युलर के समीप) यंत्र कहते हैं। यह तीन तरह की कोशिकाओं से बनता है।
1- मेक्यूला डेन्सा कोशिकाएँ- ग्लोमेर्युलस के पास से गुजरती दूरस्थ कुँडलित नलिका की घनी, लम्बी, बड़ी व स्पष्ट नाभिक युक्त और गहरी उपकला कोशिकाओं को मेक्यूला डेन्सा कोशिकाएँ कहते हैं। ये सोडियम (नमक) के प्रति संवेदनशील होती हैं और उसे चखती रहती हैं। जी.एफ.आर. कम होने पर समीपस्थ नलिका में फिल्ट्रेट का बहाव धीमा हो जाता है और सोडियम का अवशोषण बढ़ जाता है। फलस्वरूप दूरस्थ नलिका में सोडियम की मात्रा कम हो जाती है, जिसे मेक्यूला डेन्सा महसूस कर लेता है और नाइट्रिक ऑक्साइड और प्रोस्टाग्लेन्डिन के स्राव के द्वारा जक्स्टा ग्लोमेर्युलर सेल्स को रेनिन स्राव करने का आग्रह करते हैं। तथा ये सोडियम कम होने पर पेराक्राइन का स्राव करते हैं जो अंतर्गामी धमनिका का संकुचन कर जी.आफ.आर. बढ़ते हैं।
2- जक्स्टा ग्लोमेर्युलर सेल्स- ये बहिर्गामी धमनिका में रक्तचाप को नापते रहते हैं और इन स्थितियों में रेनिन का स्राव करते हैं। अ- बीटा 1 एड्रीनर्जिक उत्प्रेरण ब- बहिर्गामी धमनिका में रक्तचाप कम होना स- जी.एफ.आर. कम होने से मेक्यूला डेन्सा में नमक का अवशोषण कम होना।
3- मेसेन्जियल सेल्स
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गुच्छीय निस्यंदन दर का मान कितना होता है
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