नीली आँखों के जादूगर चंद्रमोहन
चंद्र
मोहन
जन्म - 1905
निधन
---- मार्च, 1949
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वी. शांताराम की बहुचर्चित फिल्म ‘अमृत-मंथन’ (34) चंद्रमोहन की पहली फिल्म थी, जिसमें उन्होंने खलनायक राजगुरू की केंद्रीय भूमिका निभाई। इसके लिए शांताराम को उनके जैसे नीली बिल्लोरी आँखों वाले अभिनेता की ही जरूरत थी। इस फिल्म में शांताराम ने उनकी आँखों के ‘क्लोज-अप’ का बारम्बार उपयोग कर फिल्म को सनसनीखेज और प्रभावोत्पादक बनाया। चंद्रमोहन पहली ही फिल्म से हिट हो गए। शांताराम ने अपनी दो अगली फिल्मों, ‘धर्मात्मा’ (34) और ‘अमरज्योति’ (35) में भी उन्हें महत्वपूर्ण भूमिकाएँ दीं, लेकिन नायक के रोल नहीं। इन फिल्मों के नायक बाल गंधर्व थे, मगर चंद्रमोहन को सितारा हैसियत प्राप्त हो गई थी।
चंद्रमोहन की पहली
बहुचर्चित फिल्म ‘अमृत-मंथन’ थी, जिसमें वी. शांताराम ने उनकी नीली बिल्लोरी
आँखों के ‘क्लोज-अप’ का बारम्बार उपयोग
कर फिल्म को सनसनीखेज और प्रभावोत्पादक बनाया। चंद्रमोहन पहली ही
फिल्म से हिट हो गए।
‘अमृत-मंथन’ बनाने वाली प्रभात फिल्म कम्पनी पहले कोल्हापुर में थी। पुणे में उसकी यह पहली फिल्म थी। कोल्हापुर में बाबूराव पेंढारकर खलनायकी के लिए बहुत मकबूल हो चुके थे, लेकिन वे पुणे नहीं आए, इसलिए शांताराम को राजगुरू के रोल के लिए चंद्रमोहन का चुनाव करना पड़ा। बाद में स्वयं पेंढारकर ने चंद्रमोहन के अभिनय की तारीफ में बहुत कशीदे पढ़े। 1941 में पेंडारकर ने ‘अमृत’ नामक फिल्म में एक चमार की बेजोड़ भूमिका निभाई। यह भूमिका चंद्रमोहन को ध्यान में रखकरी लिखी गई थी, लेकिन वे उपलब्ध नहीं हुए तो पेंढारकर को यह रोल दे दिया गया। बाद में पेढ़ारकर ने कहा, चंद्रमोहन होते तो मुझसे अच्छा अभिनय करते।
‘अमृत-मंथन’ में चंद्रमोहन की आँखों का उपयोग खौफ पैदा करने के लिए किया गया था और सचमुच दृश्य इतने डरावने थे कि कोई निर्माता उन्हें हीरो के रूप में लेने की हिम्मत नहीं कर सकता था। लेकिन सोहराब मोदी ने अपनी ऐतिहासिक फिल्म ‘पुकार’ (39) में उन्हें बादशाह जहाँगीर की भूमिका देकर बड़ा जोखिम उठाया। इसमें चंद्रमोहन ने अभिनय-क्षमता का ऐसा जौहर दिखाया के वे खलनायक से नायक बनने वाले पहले सफल अभिनेता साबित हुए। इस फिल्म में उनकी नायिका सायरा बानू की माता नसीम थीं। ‘पुकार’ में चंद्रमोहन को न्यायप्रिय बादशाह जहाँगीर की भूमिका में देखकर के. आसिफ ने उन्हें ‘मुगल-ए-आजम’ में अकबर की भूमिका के लिए चुना था। अनारकली और सलीम की भूमिका के लिए नरगिस और सप्रू लिए गए थे। भारत-पाक विभाजन और चंद्रमोहन के असामयिक निधन की त्रासदियों के कारण आसिफ की योजना धरी रह गई, जबकि आधी शूटिंग हो गई थी।
आसिफ ने 1951-52 में ‘मुगल-ए-आजम’ की योजना को फिर हाथ में लिया। इस बार चंद्रमोहन की जगह पृथ्वीराज कपूर को लीड रोल दिया गया और नरगिस सप्रू के स्थान पर मधुबाला-दिलीपकुमार लिए गए। यह बात अलग है कि पृथ्वीराज भी अकबर के जामे में खूब फबे और दिलीप-मधुबाला की जोड़ी भी हिट रही। अकबर में पृथ्वीराज अजर-अमर हो गए। जीवन के अंतिम वर्षों में सोहराब मोदी ‘पुकार’ का रिमेक बनाना चाहते थे। उन्होंने जहाँगीर के रोल के लिए दिलीपकुमार का चयन किया, मगर साथ ही यह भी कहा था कि चंद्रमोहन जैसा जहाँगीर दोबारा मिलना मुश्किल है।
सारी जिंदगी अविवाहित रहने वाले और “स्कॉच व्हिस्की” की लत तथा “घुड़सवारी” के शौक
की वजह से चंद्रमोहन तंगहाली में मरे। उनका अंतिम संस्कार सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन
ने कराया।
बेगम अख्तर के साथ चंद्रमोहन ने मेहबूब की फिल्म
‘रोटी’ में अभिनय किया था।
चंद्रमोहन का जन्म नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ था। वे कश्मीरी ब्राह्मण थे उनके पिता ग्वालियर स्टेट की सेवा में थे। चंद्रमोहन की युवावस्था में ही उनके पिता चल बसे, इसलिए वे रोजगार की खातिर घर से निकल पड़े। उन्होंने तरह-तरह की नौकरियाँ कीं, जिसमें से एक फिल्म वितरण कम्पनी थी। इस कम्पनी के लिए फिल्म का अनुबंध करने के सिलसिले में ही उनकी मुलाकात शांताराम जी से हुई। शांताराम को चंद्रमोहन का व्यक्तित्व आकर्षक लगा। उन्होंने उनके समक्ष अभिनेता बनने का प्रस्ताव रख दिया, लेकिन वे राजी न हुए। दो साल बाद, जब चंद्रमोहन नैनीताल के एक थिएटर में मैनेजर थे, फिर शांताराम से मिले तो अभिनय के लिए तैयार हो गए और तीन फिल्मों में वे लगातार आए।
शांताराम चंद्रमोहन को लेकर चौथी फिल्म भी बनाना चाहते थे, लेकिन मेहनताने के मामले को लेकर बात बिंगड़ गई। शांताराम पुराने रेट पर ही उन्हें अनुबंधित करना चाहते थे, लेकिन चंद्रमोहन के यह बात जँची नहीं कि एक स्थापित कलाकार के रूप में भी वे नवागत कलाकार जैसी फीस लें, जबकि बाजार में उनके दाम बढ़ गए थे। चंद्रमोहन के इंकार से शांताराम तल्ख हो गए और कह बैठे कि वह दूसरा चंद्रमोहन भी पैदा कर सकते है। चंद्रमोहन भी कम स्वाभिमानी नहीं थे। उन्होंने जवाब दिया कि दूसरा चंद्रमोहन तो उनके पिता भी पैदा नहीं कर सके, अब आप भी कोशिश करके देखिए। मगर बाद में दोनों के बीच सुलह भी हुई और चंद्रमोहन ने शांताराम की यादगार फिल्म ‘शकुंतला’ में जयश्री के साथ दुष्यंत की भूमिका निभाई।
अपने पंद्रह वर्षीय फिल्म करीयर मे चंद्रमोहन ने कुल जमा तीस फिल्मों में काम किया। 1934 से 39 तक प्रतिवर्ष उनकी एक फिल्म प्रदर्शित हुई। 1940 में ‘भरोसा’ और ‘गीता’ नामक दो फिल्में रिलीज हुई। ‘गीता’ में उन्होंने पहली बार डबल राल किया। आगे हिन्दी में बनने वाली डबल-रोल फिल्मों के लिए इसने आदर्श-प्रारूप का काम किया। 1941 में उनकी तीन फिल्में सिनेमाघरों में लगी, जिनमें मेहबूब की ‘रोटी’ भी थी, जिसमें वे प्रख्यात गायिका बेगम अख्तर के साथ आए। दो अन्य फिल्में थी – ‘झंकार’ और ‘अपनाघर’। 43 में उनकी ‘फैशन’, ‘शकुंतला’ और ‘तकदीर’ फिल्में आईं। 44 में उनकी लोकप्रियता का ग्राफ एकदम चढ़ा, जब छः फिल्में प्रदर्शित हुई। इनमें ऐतिहासिक फिल्म ‘मुमताजमहल’ भी शरीक थी। 45 में भी चार फिल्में रिलीज हुई, जिनमें ‘हुमायुँ’ और ‘पन्नादाई’ शामिल थीं। 46 और 48 में तीन-तीन फिल्में आईं। दिलीपकुमार और कामिनी कौशल अभिनीत फिल्मीस्तान की ‘शहीद’ (48) चंद्रमोहन की अंतिम फिल्म थी, जिसमें उन्होंने दिलीपकुमार के पिता रायबहादूर द्वारकादास का रोल किया था।
उनकी यादगार फिल्मों में ‘अमृत-मंथन’ के अलावा ‘शकुंतला’, ‘मुमताज महल’, ‘श्रवणकुमार’ (46) और ‘रामबाण’ (48) प्रमुख हैं, जिनमें उन्होंने क्रमशः दुष्यंत शाहजहाँ राजा दशरथ और रावण के बहुआयामी किरदार निभाए। मार्च 1949 में सिर्फ 45 साल की उम्र में उनका देहावसान हो गया। इतनी फिल्मों काम करने के बावजूद चंद्रमोहन कंगाल की मौत मरे । उनका अंतिम संस्कार सिने आर्टिस्ट एसोसिएशन ने करवाया। चंद्रमोहन के जीवन में कंगाली का आगमन 1945-46 में ही हो गया था। वे शाही खर्च व्यक्ति थे। उनके मंहगे शगल थे, ‘स्कॉच’ और ‘घुड़दौड़’। आखिरी दिनों में मजबूरन उन्हें ठर्रा भी पीना पड़ा। किस्सा मशहूर है कि एक बार मोतीलाल उनसे मिलने गए तो वे स्कॉच की बोतल लिए बैठे थे और मोतीलाल को ऑफर किये बिना अकेले पीते रहे, जबकि वे हमपियाला और हमनिवाला रहे थे। यह रहस्य बाद में उजागर हुआ कि स्कॉच की बोतल में ठर्रा भरा था।
सोहराब मोदी की फिल्म ‘पुकार’ में
चंद्रमोहन को न्यायप्रिय मुगल बादशाह जहाँगीर की भूमिका में देख के. आसिफ ने
उन्हें ‘मुगल-ए–आजम’ में अकबर की भूमिका के लिए चुना था। भारत-पाक विभाजन तथा चंद्रमोहन की
अकाल मौत की वजह से अधिकांश शूटिंग रद्द हो गई।
चंद्रमोहन की कहानी यहीं खत्म नहीं होती। चंद्रमोहन ने विवाह नहीं किया था। उनकी दिनचर्या अनियमित थी। वे नास्तिक थे, ऊपर से ‘ड्रग-एडिक्ट’ भी। इसलिए पैसा बचने का तो सवाल ही नहीं था। नतीजतन पीने के लिए घर का सारा सामान एक-एक कर बिक गया। बहुत बुरे दिन देखने के बाद उन्होंने सुधरने के प्रयत्न किए, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। आखिरी दिनों में वे देवी-माँ के भक्त हो गए थे और अकसर मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि धर्म-स्थलों पर जाया करते थे। वे मतिभ्रंश के रोगी भी हो गए थे। उनके जीवन पर मित्र मोतीलाल ‘जुआरी’ नामक फिल्म बनाना चाहते थे, लेकिन बाद में मोतीलाल भी चंद्रमोहन की तरह तंगहाली के शिकार हुए और ‘जुआरी’ की योजना धरी रह गई। चंद्रमोहन और मोतीलाल की जोड़ी परदे पर पिता-पुत्र के रूप में दिखाई दी। 1943-44 में बनी ‘तकदीर’ ‘रौनक’ और
‘उमंग’ में चंद्रमोहन ने मोतीलाल के पिता बनने का साहस दिखाया था।
उनकी पहली फिल्म ‘अमृत-मंथन’ में पहली बार
टेलीफोटो लैंस और कई नई-नई जर्मन फिल्म तकनीकों प्रयोग किया गया। यह पहली भारतीय फिल्म
है जिसने सिल्वर जुबली मनाई।
सोहराब मोदी की फिल्म ‘पुकार’ में चंद्रमोहन को न्यायप्रिय मुगल बादशाह जहाँगीर की भूमिका में देख के. आसिफ ने उन्हें ‘मुगल-ए–आजम’ में अकबर की भूमिका के लिए चुना था। भारत-पाक विभाजन तथा चंद्रमोहन की अकाल मौत की वजह से अधिकांश शूटिंग रद्द हो गई।